अध्याय ३ ब्राह्मण १ २७९ । यह । चक्षुः नेत्र है । सः वही । असौ यह । श्रादित्यः सूर्य है । साम्वही सूर्य । अध्वर्युः अध्वर्यु है । साम्वही अध्वयु । मुक्तिः यजमान की मुनि का कारण है । सावही । अति- मुक्तिः-उसकी प्रतिमुक्ति का भी कारण है। भावार्थ । प्रयम प्रश्न के उत्तर के पाने से समाधान होकर अश्वल होता सन्तुष्ट होता हुआ फिर प्रश्न करता है, हे याज्ञवल्क्य ! इस संसार में यावत् वस्तु हैं सब दिन और रात्रि से गृहीत हैं, ऐसी हालत में किस उपाय करके यज्ञ का कर्ता यानी यजमान अहोरात्र के पाश को उल्लङ्घन करके मुक्त हो जाता है, इसके उत्तर में याज्ञवल्क्य कहते हैं कि हे अश्वल ! अध्वर्युनामक जो ऋत्विज् है, उसकी सहायता करके यज्ञ का कर्ता यजमान मुक्त हो जाता है, हे अश्वल ! अध्वर्यु के कहने से मेरा मतलब नेत्र और सूर्य है, जब यजमान नेत्र के द्वारा भली प्रकार विधिपूर्वक यज्ञ करता है, तब सूर्यदेवता अपनी रश्मियों द्वारा उस यज्ञकर्ता को ब्रह्म- लोक को ले जाकर आवागमन से मुक्त कर देता है, इस लिये यजमान का शुद्ध चक्षु ही अध्वर्यु है ॥ ४ ॥ . मन्त्र: ५ याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदछ सर्व पूर्वपक्षापर- पक्षाभ्यामाप्तछ सर्वं पूर्वपक्षापरपक्षाभ्यामभिपन केन यजमानः पूर्वपक्षापरपक्षयोराप्तिमतिमुच्यत इत्युद्गा- त्रत्विजा वायुना प्राणेन प्राणो वै यज्ञस्योद्गाता तद्योऽयं प्राणः स वायुः स उद्गाता स मुक्तिः सातिमुक्तिः॥
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