अध्याय ३ ब्राह्मण १ २८१ भावार्थ । अश्वल होता फिर प्रश्न करता है, हे याज्ञवल्क्य ! संसार में सब पदार्थ कृष्ण और शुक्लपक्ष करके व्याप्त हैं, ऐसी अवस्था में हे याज्ञवल्क्य ! किस उपाय करके पूर्वपक्ष और अपरपक्ष की व्याप्ति से यज्ञकर्ता मुक्त होता है, इसके उत्तर में याज्ञवल्क्य कहते हैं कि हे अश्वल ! उद्गातानामक ऋत्विज् की सहायता से यजमान दोनों पक्षों की व्याप्ति से छूट जाता है, मनुष्य सम्बन्धी उद्गाता से मेरा मतलब नहीं 'है, बल्कि प्राणवायु से और बाह्यवायु से मतलब है, हे अश्वल ! यह प्राणवायु प्राणवायु है, यही उद्गाता है, यही बाह्यवायु है, यही प्राण हैं, प्राण ही को इन्द्रियां भी कहते हैं, प्रत्येक इन्द्रियों का शुद्ध करना ही परम साधन है, इन्द्रियाँ शुद्ध होजाती हैं तब इनकी सहायता करके यजमान का कल्याण होता है ॥ ५ ॥ मन्त्रः ६ याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदमन्तरिक्षमनारम्बणमिद केनाऽऽक्रमेण यजमानः स्वर्ग लोकमाक्रमत इति ब्रह्मण- विजा मनसा चन्द्रेण मनो चै यज्ञस्य ब्रह्मा तद्यदिदं मनः सोऽसौ चन्द्रः स ब्रह्मा स मुक्तिः सातिमुक्तिरित्यतिमोक्षा अथ संपदः ॥ पदच्छेदः। याज्ञवल्क्य, इति, ह, उवाच, यत् , इदम्, अन्तरिक्षम् , अनारम्त्रणम् , इव, केन,आक्रमेण, यजमानः स्वर्गम् , लोकम् , आक्रमते, इति, ब्रह्मणा, ऋत्विजा, मनसा, चन्द्रेण, मनः, जब .
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