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पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२९८

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२८२ · बृहदारण्यकोपनिषद् स० वै, यज्ञस्य, ब्रह्मा, तत्, यत् , इदम् , मनः, सः, असी, चन्द्रः, सः, ब्रह्मा, सः, मुक्तिः, सा, अतिमुक्तिः, इति, अनिमीक्षाः, अथ, संपदः । अन्वय-पदार्थ। + अंश्वल:अश्यल ने । इति इस प्रकार । उवाच-कहा कि। याज्ञवल्क्य-हे याज्ञवल्क्य ! । यत्-जो । पदम्यह। अन्तरिक्षम्-ध्राफाश । अनारम्यणम् इव-निरालय मा। + दृश्यते-दीखता है तो केन-किस ाक्रमेणवाधार करके। यजमानः यजमान । स्वर्गम-स्वर्ग । लोकम् लोक को । श्राक्रमप्राप्त होता है । + याज्ञवल्क्याम्याबल्य ने । + उवाच-कहा । ब्रह्मणान्यामारूप | ऋत्विजा-परियज । मनसा ऋत्विजरूप मन । + च-ौर । चन्द्रेण-मनरूप चन्द्र करके । श्राक्रमते-माप्त होता है। हिन्क्योंकि । यशस्य-यज. मान का । मना-मन । वै-ही । ब्रह्मा-ग्रहा है । तत्-इसलिए। यत्-जो । इदम्-यह । मनः-मन है । साम्यही । असी-यह। चन्द्र:-चन्द्रमा है । सावही चन्द्रमा । ब्रह्मा-मामा है। सः वही ब्रह्मा । मुक्तिः यजमान के मुनि का साधन है। सा-वह मुक्ति। अतिमुक्तिःप्रति मुक्ति है। इति इस प्रकार । अतिमोक्षा: यजमान तापत्रय से छूट जाता है। अथ-घय धागे । संपदः पुरुषार्थक संपत्तियाँ । + कथ्यन्ते-कही जाती है। भावार्थ । अश्वल फिर प्रश्न करता है, हे याज्ञवल्क्य ! का अन्तरिक्ष यानी श्राफाश निरालम्ब प्रतीत होता है, और स्वर्गलोक इससे आगे है, तब किसकी सहायता से यजमान स्वर्गलोक को पहुँचता है, इस पर याज्ञवल्क्य कहते हैं कि यह सामने .