पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२९९

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अध्याय ३ ब्राह्मण १ २८३ हे अश्वल ! ब्रह्मानामक ऋत्विज् की सहायता से यजमान स्वर्गलोक को चढ़ता है, हे अश्वल ! ब्रह्मा से मेरा मतलब मनरूपी.चन्द्रमा से है, जब यजमान का कल्याण होगा तब केवल शुद्ध मन करके ही होगा यही मन यज्ञ का ब्रह्मा है, इस लिये जो यह मन है वही चन्द्रमा है, वही ब्रह्मा है, वह चन्द्रमा ही मुक्ति का साधन है, इसलिये शुद्ध मनही यजमान को चन्द्रलोक में पहुँचाकर उसको अत्यन्त सुखभोगी बनाता है ॥ ६ ॥ याज्ञवल्क्येति होवाच कतिभिरयमद्यम्भिहोताऽस्मिन् यज्ञे करिष्यतीति तिसृभिरिति कतमास्तास्तिस्र इति पुरो- नुवाक्या च याज्या च शस्यैव तृतीया किं तामिर्जयतीति यत्किञ्चेदं प्राणभृदिति ॥

पदच्छेदः। याज्ञवल्क्य, इति, ६, उवाच, कतिभिः, अयम् , अद्य, ऋग्भिः, होता, अस्मिन् , यज्ञ, करिष्यति, इति, तिसृभिः, इति, कतमाः, ताः, तिस्रः, इति, पुरोनुवाक्या, च, याज्या, च, शस्या, एव, तृतीया, किम्, ताभिः, जयति, इति, यत्, किञ्च, इदम् , प्राणभृत्, इति । अन्वय-पदार्थ । + अश्वला-अश्वन ने । इति इस प्रकार । उवाचकही कि । याज्ञवल्क्य हे याज्ञवल्क्य ! । अयम्-यह । होता होता । अंध-माज । कतिभि:-कितनी । ऋग्भिः ऋचाओं करके। अस्मिन्-इस संमुख ।, यज्ञ-यज्ञ में । करिष्यति-स्तुति करती