सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वृहदारण्यकोपनिषद् स. .. भया पुरा-पहिले । संवत्सरः काल । न-न । पास हब्धा । तम् उस गर्भ विषे पाये हुये प्रजापति को । एतावन्तम्-इतने । कालम् कालपर्यन्त । + मृत्युः मृत्यु । अधिभः धारण करता । यावान्-जितने कालतक । संवत्सर:-संवत्सर । + प्रसिद्धः प्रसिद्ध है । एतावतः-इस । कालस्य-काल के परस्तात्=पीछे । तम् असृजत-उसको यानी वह अपने को अंड में से उत्पन्न करता भया । + चन्योर । सः वह । + मृत्युः- मृत्यु । तम्-उस । जातम्-उत्पन्न हुए कुमार के । + अतुम्न खाने के लिये। अभिव्याददात्-मुख खोलता भया । नदा- तव । सा-वह कुमार | + भीतः डरता । + सन्-हुया । भाण-भाण् । + इति-ऐसा शब्द । अकरोत् करता भया । सा एवम्बही भाण् । बाक्वा । अभवत्-होता भया । भावार्थ । हे सौम्य ! जब उस भूखरूप मृत्यु ने इच्छा किया कि मेरा दूसरा शरीर उत्पन्न हो, तब उसने वाणी को मन के साथ संयोजित किया, तिस मन और वाणी के मेल से ज्ञान- रूपी वीर्य जो शरीर की उत्पत्ति का कारण था सोई संवत्सर कालरूप प्रजापति होता भया, तिसकी उत्पत्ति के पहिले काल नहीं था, हे सौम्य! उस गर्भ में आये हुए प्रजापति को उतने काल तक मृत्यु धारण करता रहा जितने काल तक कल्प होता है, तिस काल के पीछे वह अपने को ही अंडे में से दूसरे स्वरूप में उत्पन्न करता भया, तिस उत्पन्न किये हुए कुमार को वह मृत्यु खाने के लिये दौड़ा, तब वह डरा हुआ कुमार "माण्" ऐसा शब्द करता भया, फिर वही शब्द भाण वाणी होती भई, जो आजतक विख्यात है, यानी बोली जाती है ॥ ४ ॥