पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/३२१

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अध्याय ३ ब्राह्मण २ भावार्थ। आतभाग ने बहुत कठिन प्रश्न किया, पर उनका यथार्थ उत्तर पाकर अति प्रसन्न हुआ। अब अद्वितीय प्रश्न करता है, यह कहता हुआ कि हे याज्ञवल्क्य ! जिस काल में इस मरे इये पुरुष की वागिन्द्रिय शक्ति अग्नि में नष्ट हो जाती है, और हृदयस्थ उष्णता चली जाती है, प्राण वाह्यवायु में मिल जाता है, दर्शनशक्ति चनु श्रादित्य में चली जाती है, मन की वृत्ति चन्द्रमा में लय हो जाती है, श्रवणशक्ति दिशाओं में मिल जाती है, शारीरक स्थूल पार्थिव भाग पृथ्वी के साथ जा मिलता है, शरीर के अभ्यन्तरीय आकाश, बाह्य आकाश में प्रवेश कर जाता है, शरीर के रोम ओपधी में मिल जाते हैं. और शरीर के माथे के केश बनस्पति में प्रवेश कर जाते हैं, शरीर के रक्त और रक्त के साथ अन्य जलीय भाग वीर्य अथवा वीर्य के तुल्य अन्य पदार्थ जल में मिल जाते हैं अर्थात् जब कार्य कारण में लय होजाता है, तब यह पुरुष कहां और किस आधार पर रहता है ? हे याज्ञवल्क्य! इसका उत्तर आप मुझको दें । याज्ञवल्क्य कहते हैं, हे प्रिय, आर्तमाग ! इस प्रश्न का उत्तर जनसमूहों में देना ठीक नहीं है, अपना हाथ हमको देव, उठो चलो, इस प्रश्न के विषय में जो कुछ विचारणीय हैं उसको हम तुम दोनों एकान्त में विचार करेंगे, इस प्रश्न के उत्तर को इस सभा में कोई नहीं समझेगा, . इसलिये उसका कहना सभा के मध्य में अयोग्य है, इस पर वे दोनों कहीं एकान्त में जाकर विचार करने लगे और विचार करते करत ऐसा निश्चय किया कि कर्म ही श्रेष्ठ है, कर्म के ही श्राश्रय पुरुप की स्थिति है, जबतक पुरुप कर्म करता रहेगा, तब- .