३१२ वृहदारण्यकोपनिषद् स० निस्संदेह । अगच्छन्-जाते भये । इति-ऐसा । + श्रुत्वा- सुन कर । नु-मैंने प्रश्न किया कि । अश्वमेधयाजिनः प्रश्य- मेध करने वाले । क-कहाँ । गच्छन्ति गाने हैं ? | + याम- वल्क्य: याज्ञवल्क्य ने | + उवाच-उत्तर दिया कि । भुज्यु: हे भुज्यु ! । देवरथायानि-सूर्य का रथ एक दिन रान में जितने देश में आता है । तस्य-उसका । द्वात्रिंशनम् यत्तीमगुना । अयम्-यह । लोक लोक यानी मारनय है। + अतःपरम्- इसके उपरान्त । + परमलोकः अन्तरिक्ष लोक है । नम् उसको । तावद्धिः उतनाही द्विगुण प्रमाणवाला । समन्तम्- चारों तरफ से । पृथिवी-पृथ्वी । पर्यति धेरै है। व-धौर । ताम्-उस । पृथिवीम्=पृथ्वी को । समन्नम् चारों तरफ से। तावत्-उतनाही । द्विान्ने प्रमाणवाला । समुद्रः समुद्र पर्यति धेरे है। तत्-ऐसा होने पर । अन्तरेण-उसके धन्दर । आकाशाम्याकाश व्याप्त है। सः। ताचान उनना ही सूक्ष्म है । यावत्-जितनी । क्षुरस्य-रा की । धारा-धार यानी अग्रभाग। वा-शोर । यावत्-जितना । मक्षिकायाः मक्षिका का । पत्रम्=पंख सूक्ष्म है । + तत्र-वहां । इन्द्रः- परमात्मा । सुपर्णः-पक्षी । भूत्वान्हो कर । तान-उन अश्य- मेध यज्ञ करने वालों को। वायवे यायु के। प्रायछत्-सिपुर्द करना भया । वायुः वायु । तान्-उनको । श्रात्मनि-सपने में । धित्वा-रख कर । तत्र-वहां । अगमयत्-ले जाता भया । तत्र-वहां । अश्वमेधयाजिनः अश्वमेध कर्ता । अभवन्- जाते हैं। एवंइव वै-इसी प्रकार । सः वह गन्धर्व । वायुम्एव: वायु कीही। प्रशशंस-प्रशंसा करता भया । तस्मात्-इसलिये । वायुः वायु । + एवम्ही । व्यष्टि व्यटिरूप है। वायुः वायु । एवम्ही । समष्टिः समष्टिरूप है । + भुज्यु-हे भुज्यु ! एवम्-
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