अध्याय ३ ब्राह्मण ३ इस प्रकार । यःमो । वेद-मानता है। + सम्बह । पुनः फिर । मृत्युम-मृत्यु को। अपजयतिमीतता है । ततः ह= इस प्रकार याज्ञवल्क्य के उत्तर पाने पर । लाह्यायनि: लाख का पुत्र । भुज्युम्भुन्यु । उपरराम-चुप होगया । भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज बोले कि हे लाह्यायनि, भुज्यु ! श्राप सुना मैं कहता हूं। उस गन्धर्व ने श्राप से इस प्रकार कहा, पारिक्षित वहां गये जहां अश्वमेध यज्ञ के करनेवाले जाते हैं, वह लोक कसा है ? उसको भी तुम सुनो, जितना सूर्यदेव का रथ एक दिन रात्रि में निरन्तर जाता आता है, उसके ऊपर अन्त- रिक्षलोक है, उन लोक के चारों तरफ द्विगुण परिमाणवाला पृथ्वीलोक है, उस पृथ्वी के चारों तरफ़ द्विगुण परिमाणयुक्त समुद्र विद्यमान है, उन दोनों यानी अन्तरिक्ष और पृथ्वीलोक के मध्य में अाकाश व्याप्त है, वह इतना सूक्ष्म है जितना छुरा का अग्रभाग और मक्षिका का पर होता है, ऐसे अतिसूक्ष्म और दुर्विज्ञय देश में परमात्मा पक्षी के श्राकार में होकर उन पारि- क्षितों को वायु अभिमानी देवता के सिपुर्द करता भया और वह वायु उन्हें अपने में रखकर यहां ले गया जहां अश्वमेधकर्ता रहते थे। इस उत्तर के देन से याज्ञवल्क्य महाराज ने वायु की प्रशंसा की इसलिये सारा ब्रह्माण्ड और उसके अभ्यन्तर सारी सृष्टि, व्यष्टि और समष्टि वायु करके व्याप्त है जो विद्वान् पुरुष वायु या प्राण को इस प्रकार जानता है और उसकी उपासना करता है वह मृत्यु को जय करता है और अजर, अमर होजाता है। ऐसा सुन कर लाह्यायनि भुन्यु चुप हो गया ॥ २ ॥ इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥ ३ ॥ .
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