अध्याय ३ ब्राह्मण ४ तात्-अपरोक्ष। ब्रह्म=बह है। यःो। आत्मा आत्मा । सर्चान्तरःप के अभ्यन्तर है। तम्-उसको । मे मेरे लिये। व्याचक्ष्य-कह । इति-ऐमा । +श्रुत्वा-मुन कर । याज्ञवल्क्यः याज्ञवल्क्य ने । उवाच-उत्तर दिया कि । एप: यह । तेतेरा। यात्माप्रामा । सर्वान्तर: सय के श्रभ्यन्तर विराजमान है। + पुनः फिर। + उपस्त:उपस्त ने। श्राह कहा । याज्ञ- वल्क्य हे याज्ञवल्क्य ! | + असोयह । कतमः कौन सा । सर्वान्तरः-धारमा सर्वान्तर है। +याशवल्क्येन याज्ञवल्क्य ने। + उत्तरम्-उत्तर । + दत्तम्-दिया कि । यःजो आस्मा । प्राणेन-प्राणवायु कर । प्राणिति चेष्टा करता है। साचही। ते-तेरा। श्रात्मा-मामा । सर्वान्तर:-सर्वान्तर्यामी है। यः- जो । श्रपानन-अपान वायु कर के । अपानिति चेष्टा करता है साम्य । ते-तेरा । श्रात्मा प्रास्मा। सर्वान्तरः सन्तियांमी है। य:ो। व्यानन ज्यान वायु करके । व्यानिति चेष्टा करना है। स: यह । तेस्तरा । श्रात्मा-प्रारमा । सर्वान्तर:- सर्वान्तर्यामी है। यः जो । उदानेन-उदान वायु करके । उदा. नितिम्चेष्टा करता है। सावह । ते-तेरा । श्रात्मा-प्रारमा सर्यान्तर:सर्वान्तर्यामी है । एपः ऐसा कहा हुमा । ते-तेरा। श्रान्माप्रारमा । सर्वान्तर: सर्वान्तर्यामी है। भावार्थ । जब लाह्यायनि भुज्यु चुप होगया तब चक्र के पुत्र उषस्त ब्राह्मण ने याज्ञवल्क्य महाराज से पूछना प्रारम्भ किया कि दे याज्ञवल्क्य ! जो प्रत्यक्ष ब्रह्म है, और जो सत्र के अभ्यन्तर है, उसको मेरे प्रति कहिये। यह सुनकर याज्ञवल्क्य महाराज उत्तर देते हैं। हे उपस्त ! तेरा हृदयगत श्रात्मा सब में विरा- जगान हैं, इस उत्तर को पाकर सन्तुष्ट न होकर उपस्त फिर
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