पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/३६२

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३४८ बृहदारण्यकोपनिषद् म० अन्धकार । न वेद-नहीं जानता है । यस्य:जिमका । शरीरम् शरीर । तमाम है 1 यो । अन्तरअन्धकार के भीतर बाहर रहकर । नम अन्धकार को । यमयनि-नियम. घद्ध करना है। एपः वदी । ते=ोरा । अमृत: राबिनाशी । आत्माघारमा । अन्तर्यामी-अन्तर्यामी है। भावार्थ। जो तम के भीतर बाहर रहता है, जिसको तम नहीं जानता है, जो तम को जानता है, जिसका शरीर तम है, जो तम के अन्तर और वाहर रहकर उसको शान करता है, जो अमृतस्वरूप है, और जो श्रापका श्रात्मा है, यही वह अन्तर्यामी है ॥ १३ ॥ मन्त्रः१४ यस्तेजसि तिष्टस्तेजसोऽन्तरो यं तेजो न वेद यस्य तेजः शरीरं यस्तेजोऽन्तरो यमयत्येप त यात्माऽन्तया- म्यमृत इत्यधिदैवतमथाधिभूतम् ।। पदच्छेदः। यः, तेजसि, तिष्ठन् , तेजसः, अन्तरः, यम्, तेजः, न, चेद, यस्य, तेजः, शरीरम् , यः, तेजः, अन्तरः, यमयति, एपः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः, इति, अधिदैवतम्, अथ, अधिभूतम् ।। अन्वय-पदार्थ । या-जो । तेजसिज में । तिष्ठन् स्थित है । + य: जो । तेजसाज के अन्तरसम्बाहर है। यम्-जिसको । तेजा तेज।