३५० बृहदारण्यकोपनिषद् स० ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः, इति, अधिभूतम्, अथ, अध्यात्मम् ॥ अन्वय-पदार्थ । यःजो। सर्वेषु-सब । भूतेषु-प्राणियों में । तिष्ठन्- स्थित है । यःजो। सर्वेभ्य: सब । भूतेभ्यः प्राणियों के । अन्तर:-बाहर है । यम्-मिसको । सर्वाणि-सव । भूतानि- प्राणी । न-नहीं । विदुः मानते हैं । यस्य-जिसका । शरीरम् शरीर । सर्वाणि-सब । भूतानि-प्राणी हैं। यःम्जो। अन्तरः प्राणियों के अभ्यन्तर रहकर। सर्वाणि-सब । भूतानि-प्राणियों को। यमयति-नियमबद्ध करता है । एषःवही । ते तेरा। अमृतः अविनाशी । आत्मा-प्रात्मा। अन्तर्यामी-अन्तर्यामी है । इति इस प्रकार । अधिभूतम्-अधिभूत का वर्णन हो चुका । अथ-अब । अध्यात्मम्-अध्यात्म का वर्णन होगा। भावार्थ। जो सब भूतों में रहता है, जो सब भूतों के बाहर भी स्थित है. जिसको सब भूत नहीं जानते हैं, जो सब भूतों को जानता है, जिसका शरीर सब भूत हैं, जो सब भूतों के भीतर बाहर रहकर उनको शासन करता है, जो अमृत:- स्वरूप है, जो निर्विकार है, जो आपका आत्मा है, यही वह अन्तर्यामी है, इस प्रकार अधिभूत का वर्णन होकर अध्यात्म का प्रारम्भ होता है ।। १५ ।। मन्त्र:१६ . यः प्राणे तिष्ठन्माणादन्तरो यं प्राणो न वेद यस्य प्राणः शरीरं यः भाणमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्त- म्यमृतः॥
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/३६४
दिखावट