अध्याय ३ ब्राह्मण ७ ३५१ यमयति, पदच्छेदः। यः, प्राणे, तिष्ठन् , प्राणात् , अन्तरः, यम् , प्राणः, न, वेद, यस्य, प्राणाः, शरीरम् , यः, प्राणम् , अन्तरः, एषः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः ॥ अन्वय-पदार्थ । यःजो। प्राणे-प्राण में । तिष्ठन् स्थित है। + याजो। प्राणात्-प्राण के । अन्तरः बाहर है । यम्-जिसको । प्राण-प्राण । न-नहीं । वेद-जानता है । यस्य-जिसका। शरीरम्-शरीर । प्राण: प्राण है । याजो। अन्तरःप्राण में रहकर । प्राणम्-प्राण को । यमयति-नियमबद्ध करता है। एपाचही । ते तेरा । अमृता-धविनाशी । आत्मा-धात्मा । अन्तर्यामी-अन्तर्यामी है। भावार्थ । जो प्राण के अन्तर रहता है, और बाहर भी रहता है, जिसको प्राण नहीं जानता है, जो प्राण को जानता है, जिसका शरीर प्राण है, जो प्राण के भीतर बाहर रहकर उसको शासन करता है, जो आपका आत्मा है, जो अवि- नाशी है, यही वह अन्तर्यामी है ॥ १६ ॥ मन्त्रः १७ यो वाचि तिष्ठन्वाचोऽन्तरो यं वाङ् न वेद यस्य वाक् शरीरं यो वाचमन्तरो यमयत्येष त अात्माऽन्तर्या- म्यमृतः॥ पदच्छेदः। यः, वाचि, तिष्ठन् , वाचः, 'अन्तरः, यम्, वाक्, न,
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