पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४०६

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३१२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० अन्वय-पदार्थ । यस्य-जिस पुरुप का । श्रायतनम्-शरीर । एव-निश्चय करके । पृथिवी-पृथिवी है । लोका रूप । अग्नि:-अग्नि है। मन:-मन । ज्योति प्रकाश है । या जो । सर्वस्य-सव । आत्मनः जीवों का । परायणम्-उत्तम पाश्रय है। तम्-उस। पुरुपम्-पुरुष को । यःजो । विद्यात्-जानता है । सःबह । वै-अवश्य । याज्ञवल्क्य हे याज्ञवल्क्य ! । वेदिता-ज्ञाता। स्यात् होता है। + न अन्य: दूसरा नहीं । + इति श्रुत्वा- ऐसा सुनकर । याज्ञवल्क्या याज्ञवल्क्य कहते हैं कि । यः-जो। सर्वस्य-सब के । आत्मनः प्रात्मा का । परायणम्परम प्राश्रय है। तम्-उस । पुरुपम्-पुरुप को । यम्-जिसको । आत्थ-तुम कहते हो । अहम् में । वेद-जानता हूं । यःजो । अयम्=यह । शारीर:=शरीरसम्बन्धी । पुरुषः पुरुप है । सः- वही । एनिश्चय करके । एप: यह सब का पारमा है। शाकल्य-हे शाकल्य! । एव-अवश्य । वद-तुम पूछो । +पुनः=फिर । शाकल्यः शाकल्य ने । आह पूछा कि । तस्य-उस पुरुप का । देवता-देवता (कारण)। का-कौन है । + इति श्रुत्वा ऐसा सुनकर । + याज्ञवल्क्यःयाज्ञवल्क्य ने । ह-स्पष्ट । उवाच कहा कि । अमृतम्-अमृत है यानी वीर्य है। भावार्थ । विदग्ध कहते हैं कि, हे याज्ञवल्क्य ! जिस पुरुष का शरीर पृथिवी है, रूप अग्नि है, मन प्रकाश है, जो सत्र जीवों का उत्तम आश्रय है, उस पुरुष को जो जानता है वह अवश्य हे याज्ञवल्क्य ! उस पुरुष का ज्ञाता होता है, दूसरा नहीं, क्या आप उस पुरुष को जानते हैं ? यदि आप