३६४ वृहदारण्यकोपनिषद् स० अन्वय-पदार्थ । यस्य-जिस पुरुप का। आयतनम्-शरीर । कामः काम है । हृदयम् हृदय । लोकारहने की जगह है। मनः मन। ज्योतिः प्रकाश है । यःजो । सर्वस्य-सव के । श्रात्मनः जीवात्मा का । परायणम्-परम श्राश्रय है। तम्-उस । पुरुषम्-पुरुष को । याज्ञवल्क्य-हे याज्ञवल्क्य ! । याजो। विद्यात्-जानता है । सा-वही । वै-निश्चय करके । सर्वस्य सब का। वेदिता ज्ञाना । स्यात्-होता है । + इति श्रुत्वा ऐसा सुन कर । याज्ञवल्क्य: याज्ञवल्क्य ने । उवाच कहा। यः जो । सर्वस्य- सबके । आत्मनःथात्मा का । परायणम् उत्तम श्राश्रय है । तम्-उस । पुरुषम् -पुरुप को। अहम् =मैं । वेद-आनता हूँ। यम्-जिसको । आत्थ-तुम कहते हो । यःजो। एव-निश्चय करके । अयम्-यह । काममयाम्कामसम्बन्धी । पुरुपः-पुरुप है। सः एव-बही । एप: यह सव का श्रात्मा है । शाकल्य: हे शाकल्य! । वद-तुम पूछो। + पुनः फिर । * शाकल्या शाकल्य | + आहबोले कि । याज्ञवल्क्य-ह याज्ञवल्क्य!। तस्य-उसका । देवता-देवता यानी कारण । कान्कौन है । इति इस पर । याज्ञवल्क्याच्याज्ञवल्क्य ने। ह स्पष्ट । उवाच कहा कि । स्त्रियः कामका कारण स्त्रियां हैं। भावार्थ ।
- विदग्ध पूछते हैं कि, हे याज्ञवल्क्य ! जिस पुरुप का
शरीर काम है, हृदय रहने की जगह है, मन प्रकाश है, जो सब जीवात्मा का परम आश्रय है. जो उस पुरुष को जानता है, वह.हे याज्ञवल्क्य ! सव का ज्ञाता है, हे याज्ञवल्क्य ! क्या तुम उस पुरुष को जानते हो ? यदि आप जानते हैं,