यध्याय ३ प्राह्मण १ अन्वय-पदार्थ। श्रस्याम्हस । ध्रुवायाम् ध्रुव । दिशि-दिशा में । + त्वम्-नम । किदेवता कौन देवताचाले हो यानी ध्रुव दिशा- धिपति फिसको मानते । असिहो । * याज्ञवल्क्य: याज्ञ- परस्य ने। श्राहकहा कि । अग्निदेवतः अग्नि देवतावाला यानी ध्रुपदिशा के स्वामी अग्नि को मानता हूँ। इति इस पर । + शाकल्यः-शाफल्य ने। * श्राहपूछा। सामवह । अग्नि:-अग्नि । कस्मिन्-किसमें । प्रतिष्टितः स्थित है। इति यह । श्रुत्वाम्मुन कर । + याज्ञवल्क्या याज्ञवल्क्य ने। +याह-कहा कि । वाचि इतिम्वाणो में अग्नि स्थित है। शाकल्यः शाकल्य ने। पप्रच्छ-पूछा कि । वाक् वाणी। कस्मिन्-किसमें । प्रतिष्टिता-स्थित है। + इति श्रुत्वा ऐसा सुन कर । यामवल्फ्य: याज्ञवल्क्य ने। + आह-उत्तर दिया। हदय बागी प्रदय में स्थित है । इतिम्-इस पर । पुनःफिर । शाकल्याशाकल्य ने । उवाच-पूछा कि । हृदयम् हृदय । कस्मिन्-किसमें । प्रतिष्ठितम्-स्थित है। भावार्थ । शादान्य न पूछा ध्रुव दिशा में श्राप कौन देवता को प्रधान मानते हैं ? याज्ञवल्क्य ने कहा अग्निदेवता को, शाकल्य ने पया यह अग्नि किस में स्थित है ? यह सुन कर याज्ञवल्क्य ने कहा बाणों में स्थित है, फिर शाकल्य ने पूछा वाणी किसमें स्थित है, याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया वाणी हृदय में स्थित है, इस पर शाकल्य ने पुछा हृदय. किस में स्थित है ॥ २४ ॥ मन्त्र: २५ अहल्लिकेति होवाच याज्ञवल्क्यो यत्रैतदन्यत्रास्मन्म-
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