४२८ बृहदारण्यकोपनिषद् १० राणिन्तह दरतह हैं । तत्-वैसेही । किनाटम् वृक्ष की बात । स्नाव-पट्टे की तरह । स्थिरम्:स्थित है। इव-वैसे ! अस्थीनि अन्तरतम्रुप के. अन्तर हाड़ है । तथा एव-वैसेहो । दारूणि-वृक्ष के भीतर लकड़ी है। मजा-पुरुष का मजा । मजोपमा मजा के तुल्य ।. कृता-मानी गई है। भावार्थ जैसे पुरुष के मांस तह दरतई ( परतदार ) हैं वैसेही वृक्ष की छाल पट्टे की तरह तह दरतह (परतदार ) स्थित हैं और जैसे पुरुष के अन्तर हद्धी स्थित है वैसेही वृक्ष के भीतर लकड़ी स्थित है; जैसे पुरुष के भीतर शरीर में मजा होता है वैसेही वृक्ष में मजा होता है ॥ २७-३ ।। मन्त्रः २७-४ ..यद्धृतो, कणो रोहति मूलानवतरः पुनः । मर्त्यः स्विन्मृत्युना वृक्णः कस्मान्मूलात्परोहति ॥ पदच्छेदः। यत्, वृक्षः, वृक्णः, रोहति, मूलात् , नवतरः, पुनः, मर्त्यः, स्वित् , मृत्युना, वृक्णः, कस्मात् , मूलात्, प्ररोहति ॥ अन्वय-पदार्थ। यत् मो. वृक्या-काटा हुशा वृक्षाच है। + तस्मात् उसके । मूलात्मे से । नवतर:-नयीन वृक्ष । रोहति उत्पन्न होता है। मृत्युना-मृत्यु करके । वृषणः काटा हुभा। मयः मनुष्य । कस्मात्-किस । सूलात्-मूल से । प्ररोहति उत्पन होता है। स्वित्-यह मेरा प्रश्न है।
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