४७- वृहदारण्यकोपनिषद् स० मन्त्रः २ याज्ञवल्क्य किंज्योतिरयं पुरुष इति । आदित्य- ज्योतिः सम्राडिति होवाचादित्येनैवायं ज्योतिपाऽऽस्ते पल्ययते कर्म कुरुते विपल्येतीत्येवमेवैतचाज्ञवल्क्य ॥ पदच्छेदः। याज्ञवल्क्य, किंज्योतिः, अयम्, पुरुषः, इति, आदित्य- ज्योतिः, सम्राट, इति, ह, उवाच, आदित्येन, एव, अयम्, ज्योतिषा, आस्ते, पल्ययते, कर्म, कुरुते, विपल्यंति, इति, एवम्, एव, एतत्, याज्ञवल्क्य ॥ अन्वय-पदार्थ । याज्ञवल्क्य हे मुने ! । अयम्-यह । पुरुपा-पुरुप यानी यह जीवात्मा । किंज्योतिः इति-किस ज्योतिवाला है यानी उसको ज्योति कहाँ से भाती है । + याज्ञवल्क्यः याज्ञवल्क्य ने । उवाच-जवाब दिया कि । लम्राट्-हे जनक ! । आदित्य- ज्योतिः यह पुरुप सूर्य के प्रकाश करके प्रकाशवाला है यानी इसको सूर्य से प्रकाश मिलता है । हि-क्योंकि । अयम् यह पुरुप । आदित्येन ज्योतिषा-सृयं के प्रकाश करके ही । प्रास्ते वैठता है । पल्ययते-इधर उधर फिरता है। कर्म-गर्म। कुरते- करता है। विपल्यति-कर्म करके फिर अपने स्थान पर वापस भाता है। इति इस पर ।+जनका जनक ने।+आह-कहा। याज्ञवल्क्य हे याज्ञवल्क्य !। एतत्-पह । एवम् एव-ऐसे ही है यानी तीक है। भावार्थ । राजा जनक प्रश्न करते हैं कि, हे मुने ! जो जीवात्मा
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