पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५०

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. ३४ वृहदारण्यकोपनिपद् स० उसको। पाप्मना-पाप के अन करके । अविध्यन् धेध कर दिया । तस्मात्-इसलिये । यत्-जिस कारण । एव-निश्चय करके । सः वही । साम्यह प्रसिद्ध । एव-निस्सन्देह । पाप्मा: पाप है । यःजो । सःवह श्रोत्र में स्थित हुथा | सः प्रसिद्ध पाप्मा पाप । इदम्-इस । अप्रतिरूपम्-धनुचिन वाक्य को। शृणोति-सुनता है। भावार्थ । हे सौम्य ! तिसके पीछे कर्ण अभिमानी देवता से सब देवता बोले कि हे देवेश ! तू हमारे लिये उद्गाता बनकर उद्गीथ का गान कर, उसने कहा बहुत अच्छा, ऐसा कह कर वह श्रोत्रअभिमानी देवता उन देवताओं के लिये उद्गीथ का गान करता भया, और दूसरी बार भी श्रोत्रेन्द्रिय विष जो आनन्दादिक फल है, उसका गान देवताओं के लिये करता भया, और जो मंगलादि वस्तु उससे प्राप्त होने योग्य है उसको अपने लिये गाता भया, तब असुरों को मालूम हो गया कि इस उद्गाता की सहायता करके ये सब देवता हमारे ऊपर अतिक्रमण करेंगे, ऐसा सोच कर वे असुर उस श्रोत्रअभिमानी देव उद्गाता के सामने जाकर उसको अपने पापवस्त्र करके वेध कर दिया, इस कारण यह वही पाप है जिस करके वह श्रोत्रदेव अनुचित वाक्य को सुनता है ॥ ५ ॥ मन्त्रः ६ अथ ह मन ऊचुस्त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्यो मन उदगायद्यो मनसि भोगस्तं देवेभ्य आगायद्यत्कल्याणं सङ्कल्पयति तदात्मने ते विदुरनेन वै न उद्गात्राऽत्ये-