पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५१२

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बृहदारण्यकोपनिषद् स० समाप्ति पर I + उदास्ते उदास अप्रसन्न हो जाता है । + तथा एवम्-वैसेही।+सुप्तात् स्वप्न से ।+पुरुषः उत्थाय-पुरुष उठ कर। उदास्ते-अप्रसन्न हो जाता है। + अतः इस लिये श्राय- तम्-सोये हुये पुरुष को । न-नहीं । चोधयेत् जगाना चाहिये। इति-ऐसा । आहुः कोई प्राचार्य कहते हैं । + हि-क्योंकि। यम्-जिस देश में । एषः यह पुरुप । न-नहीं। प्रतिपद्यते आ सकता है । हनिश्चय करके । अस्मै-उस देश के लिये। दुर्मिषज्यम् भवति-चिकित्सा दुष्कर हो जाती है । अथो कोई श्राचार्य । खलु-निश्चय करके । बाहु-कहते हैं कि । अस्य इस सोये पुरुष की । एप: यह दशा । एव-निस्सन्देह । जागरितदेशे जाग्रत् अवस्था को ऐसी है। हिक्योकि । यानि जिनको । जाग्रत् मागता हुश्रा । पश्यति-देखता है। तानि- उन्हीं को । सुप्ता-सोता हुा । सम्राट हे राजन् । । अत्र- इस स्वप्नावस्था में । पश्यति-देखता है। अयम्=यह । पुरुषा पुरुष । स्वयम्-स्वयम् । ज्योति:-प्रकाशस्वरूप । भवति-होता है । इति-ऐसा । + श्रुत्वा-सुनकर । जनकः राजा जनक । उवाच-बोले कि । सानही । अहम्-मैं बोधित हुआ । भगवते अाप पूज्य के लिये । सहस्रम् हजार गौओं को । ददामि देता हूँ । अतः इसके । ऊर्ध्वम्-मागे। विमोक्षाय- मोक्ष विषयक । ब्रूहि-माप उपदेश करें। भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक ! सब लोग जीवात्मा की क्रीड़ा को तो देखते हैं, पर कोई जीवात्मा को यतिसूक्ष्म होने के कारण नहीं देखता है, जैसे शिशु क्रीड़ा करते करते जब निवारण हो जाता है, तब वह अप्र-