अध्याय १ ब्राह्मण ३ सन्न या उदासीन प्रतीत होता है, इसी प्रकार स्वप्न में क्रीड़ा करनेवाल जीवात्मा को जब कोई जगाता है तब अगर वह अच्छा स्वप्न देखता है तो जागने पर अप्रसन्न प्रतीत होता है, क्योंकि जो श्रानन्द उसको उस स्वप्न में मिल रहा था वह दूर हो गया इस ख्याल से कोई कोई आचार्य कहते हैं कि सुगुप्त पुरुष को विशेष करके जब वह गाढ़ निद्रा में रहता है एकाएक न जगाना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से उसके शरीर को हानि पहुँचती है, और दूसरा पुरुप उसके पास उस अवस्था में न पहुँचने के कारण इस सोये हुये पुरुष की दवाई नहीं कर सकता है, कोई श्राचार्य ऐसा कहते है कि, जाग्रत् और स्वम में कोई भेद नहीं है, जिस पदार्थ को पुरुप जाग्रत् में देखता है, उसी को स्वप्न में भी देखता है, न जीवात्मा कहीं जाता है, न कहीं आता है, इसलिये सुपुप्त पुरुष के सहसा जगाने में कोई क्षति नहीं है, हे राजा जनक! स्वप्नअवस्था में यह पुरुष स्वयं प्रकाशरूप होता है, ऐसा सुनकर गजा जनक बोले हे मुने ! मैं बोधित होता हुआ आप पृज्यपाद के लिये एक सहस्र गौओं को देता हूँ, हे भगवन् ! आप कृपा करके मुक्तिविषयक उपदेश मुझको करें ॥ १४ ॥ मन्त्रः१५ स वा एप एतस्मिन्संमसादे रत्वा चरित्वा दृष्दैव पुण्यं च पापं च पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति स्वनायैव स यत्तत्र किंचित्पश्यत्यनन्वागतस्तेन भवत्यसङ्गो ह्ययं पुरुष इत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य सोऽहं भगवते सहस्र ददाम्यत ऊर्च विमोक्षायैव वहीति ।।
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