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पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५३०

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- बृहदारण्यकोपनिपद् स० +मन्यसे -आप मानते हैं । तत्-सो। + न-नहीं। + यथार्थः- ठीक है । + सःवह जीवात्मा । वै-निश्चय करके । जिवन संघता हुआ । न=नहीं । जिघ्रति-सूचता है । हि-क्योंकि । नातुःसंघनेवाले जीवात्मा की । त्राते प्राणशक्ति का विपरिलोपः-नाश । अविनाशित्वात् विनाशी होने के कारण । न-नहीं । विद्यते-होना है । तु-परन्तु । तत्-उस सुपुप्ति अवस्था में । ततः उससे । अन्यत्-और कोई । विभक्तम्-पृथक् । द्वितीयम्-दूसरी वस्तु । न-नहीं है । यत्- जिसको। + सा-यह । पश्येत् देखे । भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक ! जो, आप ऐसा मानते हैं कि सुपुप्ति अवस्था में जीवात्मा नहीं सूंघता है सो ठीक नहीं है यह जीवात्मा उस अवस्था में भी विद्यमान है, और उसकी घ्राणशक्ति भी विद्यमान है, चूंकि वह जीवात्मा अविनाशी है, इसलिये उस की घ्राणशक्ति भी नाशरहित है परन्तु वह उस अवस्था में क्यों नहीं सूंघता है इसका कारण यह है कि उससे पृथक् कोई दूसरी वस्तु सूंघने के लिये वहां स्थित नहीं है जिसको वह सूंघ ॥ २४ ॥ मन्त्रः २५ यदै तन्न रसयते रसयन्वै तन्न रसयते न हि रसयितू रसयतेर्विपरिलोपोवियतेऽविनाशित्वान्न तु तद्वितीयमस्ति ततोऽन्यविभक्तं यद्रसयेत् ॥ पदच्छेदः। यत् , वै, तत्, न, रसयते, रसयन् , वै, तत् , न,