पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५३१

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अध्याय ४ ब्राह्मण ३ १७ , रसयते, न, हि, रसयितुः, रसयतेः, विपरिलोपः, विद्यते, अविनाशित्वात् , न, तु, तत् , द्वितीयम् , अस्ति, ततः, अन्यत् . विभक्तम् , यत्, रसयेत् । अन्यय-पदार्थ । + सानह जीयारमा । तन्-उन सुपुलावस्था में । न-नहीं। रसयतेस्वाद लेता है । यत्-गो। इति=ऐसा। + मन्यसे पाप मानते हैं। तत्-सो।+ नन्नहीं। + यथार्थः-ठीक है। + नःवह जीयामा । निश्चय करके । रसयन्-स्वाद लेता हुश्रा । ननहीं । रसयते-स्वाद लेता है। हि-क्योंकि । रसयितुः-रस लेनेवाले जीवात्मा के । रसयते रसज्ञानशक्ति का। विपरिलोपा नाश । अविनाशिवात्म्यात्मा के अविनाशी होने के कारण । ननहीं । विद्यते-होता है । तु-परन्तु । तत्- टस सुसुप्तावस्था में। ततःउससे । अन्यत्-और कोई । विभक्तम्-पृथक । द्वितीयम्-दुसरी वस्तु । न-नहीं है । यत् जिसको। + सःवह । रसयेत्स्वाद लेवे । भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक ! अगर आप ऐसा मानते हैं कि जीवात्मा सुपुप्ति अवस्था में नहीं स्वाद लता है सो टोक नहीं है, यह जीवात्मा उस प्रयस्था में भी विद्यमान रहता है, और उसकी स्वादग्रहण शक्ति भी विद्यमान रहती है, और जीवात्मा के अविनाशी होने के कारण उसको स्वाद ग्रहण शक्ति भी नाशरहित होती है, इसनिय वह स्वाद ले सक्ता है परन्तु जब कोई स्वाद लेने का विषय वहां नहीं है, तो फिर किसका स्वाद वह जीवात्मा लें ॥ २५ ॥ .