पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५४०

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५२६ बृहदारण्यकोपनिषद् स० अन्वय-पदार्थ । सम्राट-हे अनक ! 1+ अात्मा यात्मा । सलिल:=पानी की तरह साफ है । एका अकेला है। द्रष्टा देखनेवाला है। श्रद्वैतः= थद्वितीय है। एपः वही । ब्रह्मलोका=ब्रहालोक । भवति है। इति इस प्रकार । याज्ञवल्क्याच्याज्ञवल्क्य ने । एनम् इस राजा जनक को । अनुशशास-उपदेश किया । सम्राट राजन् ! । अस्य इस जीवात्मा का । एपा-यही । परमागरम । गतिः गति है । अस्य-इसकी । परमाम्यही श्रेष्ट । संपत्- संपत्ति है। अस्य इसका । एपः यही । परमः परम । लोकः- लोक है। अस्यम्-इसका। एपायही। परमा-परम आनन्द: आनन्द है । राजन्-हे राजन् ! । अन्यानि-सब । भूतानि- प्राणी । एतस्य इस । एवम्ही। आनन्दस्य-ब्रह्मानन्द को। मात्राम् आदाय-एक मात्रा को लेकर । उपजीवन्ति- प्रानन्दपूर्वक जीते हैं। भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक ! श्रात्मा जल की तरह शुद्ध है, एक है, द्रष्टा है, अद्वितीय है, यही ब्रह्मलोक है, इससे भिन्न और कोई ब्रह्मलोक नहीं है, इसप्रकार याज्ञ- वल्क्य महाराज ने उस राजा जनक को उपदेश किया, याज्ञ- वल्क्य महाराज कहते हैं कि, इस जीवात्मा की ब्रह्मप्राप्तिही परमगति है, इस जीवात्मा की यही श्रेष्ठ संपत्ति है, इसका यही परम लोक है, इसका यही परम आनन्द है, हे राजन्! इसी ब्रह्मानन्द के एक लेशमात्र से सब प्राणी जीते हैं और आनन्द करते हैं ॥ ३२॥