अध्याय ४ ब्राह्मण ४ पराङ्याय विषय विमुख होता हुआ । पर्यावर्त्तते-अन्तर्मुख होता है। अथ तय । सःवह कर्ता भोका पुरुष । अरूप:- रूप का पहिचाननेवाला नहीं होता है। भावार्थ । इस शरीर से जीवात्मा कैसे निकलता है उसको कहते हैं, हे राजा जनक ! जिस काल में यह जीमात्मा दुर्बलता को प्राप्त होकर मूर्छा को प्राप्त होता है तब वागादि सब इन्द्रियां इस पुरुप के सामने उपस्थित हो जाती हैं, और उस समय वह जीवात्मा तैजस अंश को भली प्रकार शरीर के सत्र अंगों से लेता हुआ हृदय के तरफ जाता है, और जब वह नेत्रस्थ पुरुष बाह्य विषयों से विमुख होता हुआ अन्तर्मुख होता है तब वह कर्ता भोक्ता पुरुषरूप का पहि- चाननेवाला नहीं होता है ॥ १ ॥ मन्त्र: २ एकीभवति न पश्यतीत्याहुरेकीभवति न जिघ्रतीत्या- हुरेकीभवति न रसयत इत्याहुरेकीभवति न वदतीत्याहुरे- कीभवति न शृणोतीत्याहुरेकीभवति न मनुंत इत्याहुरेकी- भवति न स्पृशतीत्याहुरेकीभवति न विजानातीत्याहुस्तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं पद्योनते तेन मद्योतनेनैप आत्मा निष्का- मति चक्षुष्टो वा मूनोंवाऽन्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्त- मुत्क्रामन्तं प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्क्रामन्तछ सर्वे प्राणा अनुत्क्रामन्ति सविज्ञानो भवति सविज्ञानमेवान्व- वक्रामति । विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च ।।
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