सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय.४ माह्मण ४ ५५१ श्रथपरन्तु । यो। अकामयमान:-अखिल कामना रहित है। सा-वह । न=नहीं। एति-कहीं जाता है !। + सम्राट हे राजन् ! अकाम:माहा युम्य स्पर्शादिक से रहित है जो। निष्कामा जिसमें कोई वासना नहीं है। प्रातकामः-गिसको सब पदार्थ प्राप्त हैं किसी यस्य की कमी नहीं है। प्रात्मकामा जिसमें परमात्मा के सिवाय और किसी वस्तु की वासना नहीं है। तस्य-उस पुरुप की। प्राणा:म्यागादि इन्द्रियां । न उत्क्रामन्तिदेह से बाहर नही जाती हैं । + सा-यह पुरुष । एव यहांहो । ब्रह्मन्नावित् । सन्-होता हुधा । ब्रह्म-ग्रहा को। श्रपिम्ही । एतिप्राप्त होना है यानी मुरा होमाता है। भावार्थ। हे राजा जनक ! मरते समय जीवात्मा का मन जहां और जिस विषय में आसक्त होता है वहांही यह जीवात्मा थासक्त होता हुश्रा उसी विषय की प्राप्ति के लिये जाता है, और जो कुछ यह जीवात्मा यहां करता है उस कर्म के फल को परलोक में भोग कर उस लोक से इस लोक में फिर कर्म करने को प्राता है, इस प्रकार कामनावाला पुरुप संसार को बारंवार प्राप्त होता है, हे राजन् ! जो गति काम- रहित पुरुषों को है उसको भी सुनो, जो पुरुष सब कामना से रहित है, यह कहीं नहीं जाता है, हे राजन् ! वह पुरुप जो बाह्य सुख सादिक से रहित है, और उसमें कोई वासना नहीं है, और जिसको सब पदार्थ प्राप्त हैं, किसी वस्तु की कमी नहीं है, अथवा जिसमें अपने आत्मा के सिवाय और किसी वस्तु की इच्छा नहीं है, उस पुरुप की वाणी श्रादि इन्द्रियां देह से बाहर नहीं जाती है, वह