पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५९२

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५७ वृहदारण्यकोपनिपद् स० थी, जब याज्ञवल्क्य महाराज ने गृहस्थाश्रम को त्याग कर संन्यास लन वा विचार किया ॥ १ ॥ मन्त्रः २ मंत्रेयीति होवाच याज्ञवल्क्यः प्रत्रजिष्यन्वा अरेऽहमस्मत्स्थानादस्मि हन्त तेऽनया कात्यायन्यान्तं करवाणीति ॥ पदच्छेदः। मैत्रेयि, इति, ह, उवाच, याज्ञवल्क्यः, प्रनजिप्पन्. बा, अरे, अहम् , अस्मात्, स्थानात , अस्मि, हन्त, ते, अनया, कात्यायन्या, अन्तम् , करवाणि. इति ।। अन्वय-पदार्थ। ह-तब । मैत्रेयि हे मयि ! । इति-ऐसा 1+ सम्बोध्य- सम्बोधन करके । याज्ञवल्क्यः याज्ञवल्क्य । उयाचबोले कि । अरे अरे मैत्रेयि ! । अहम् मैं । अस्मात् हम। स्थानात्-गृहस्थाश्रम से । प्रवजिप्यन्-गमन करनेवाला। अस्मिन् । हन्त यदि तुम्हारी इच्छा हो तो। अनया-इम । कात्यायन्या-कात्यायनी के साथ । ते-तुम्हारे । अन्तम्-धन- विभाग को । करवाणि इति-पृथक कर दं। भावार्थ । तब मैत्रेयी को सम्बोधन करके कहा कि अरे मैत्रेयि ! मैं इस गृस्थाश्रम से गमन करनेवाला हूं, यदि तुम्हारी इच्छा हो तो इस कात्यायनी के साथ तुम्हारे धन के भाग को पृथक् कर दूं ॥२॥