पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६०४

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बृहदारण्यकोपनिषद् स० सन्न्त्रः८ स यथा दुन्दुभेन्यमानस्य न बाद्याञ्चन्दाञ्चक्नु- याद्ग्रहणाय दुन्दुभेस्तु ग्रहगोन दुन्दुभ्याघातस्य वा शब्दो गृहीतः॥ पदच्छेदः। सः, यथा, दुन्दुभेः, हन्यमानस्य, न. वामान् शब्दान् : शक्नुयात् , अहणाय, दुन्दुभैः तु. ग्रहणेन, दुन्छन्यावातस्य: वा, शब्दः, गृहीतः ॥ अन्वय-पदार्थ। यथा जैसे । हन्यमानस्य-यजने हुये । दुन्दुभैः-टोल के। वाह्यान् बाहर निकले हुये । शब्दान-गन्द्रों के । ग्रहणाय%3D ग्रहण यानी पकड़ने के लिये । + जनाको पुनप । न-नहीं। शक्नुयात् समर्थ हो सकता है। तु-परन्तु । दुन्दुभैः ग्रहणन: ढोल के पकड़ लेने से । बा-अथवा । दुन्दुभ्याघातस्य टोल के बजानेवाले को पका लेने से । शब्दःराब्द का ग्रहल। भवति होता है। + तथा वैदेही । गृहीतः ग्रहण किया जाता है भावार्थ । हे मैत्रेयि ! जैसे बजते हुये बोल के शब्द को कोई पकड़ नहीं सक्ता है गनी बन्द नहीं कर सक्ता है परन्तु ढोल के पकड़ लेने से अथवा ढोल के बजानेवाले को पकड़ लेने से शब्द का ग्रहण हो जाता है यानी बन्द हो जाता है उसी प्रकार यह अपना आत्मा जो इस शरीर विषे स्थित है उसका ग्रहण +स:-वह शास्मा । 1