सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय ४. ब्राह्मण ५ “५११ जभी हो सता है जब शरीर आत्मा से पृथक् जान लिया जाय या शरीर का चलानेवाला जीवात्मा शरीर से पृथक् जान लिया जाय ।।८।। मन्त्रः 8 स यथा शंखस्य मायमानस्य न बाधाञ्छन्दाञ्छक्नु- याद्ग्रहणाय शंखस्य तु ग्रहणेन शंखध्मस्य वा शब्दो गृहीतः ॥ पदच्छेदः। सः, यथा, शंखस्य, ध्मायमानस्य, न, बाह्यान् , शब्दान् , शक्नुयात् , ग्रहणाय, शंखस्य, तु, ग्रहणेन, शंखध्मस्य, वा, शब्दः, गृहीतः ॥ अन्वय-पदार्थ । यथा जैसे । ध्मायमानस्य-बाये हुये । शंखस्य शंख के। वाह्यान्बाहर निकले हुचे । शब्दान्-शब्दों के । ग्रहणाय= पकड़ने के लिये । + जना कोई पुरुप । न-नहीं । शक्नुयात्- समर्थ हो सका है। तु-परन्तु । शंखस्यम्-शंख के । ग्रहणेन- ग्रहण करने से । वा अथवा। शंखध्मस्य-शंख के बजानेवाले के। ग्रहणेन-पकड़ लेने से । शब्द: शरद का । गृहीत:ग्रहण हो जाता है। तथैव-उसी प्रकार । +सा-वह श्रात्मा ।

  1. गृहीता ग्रहण । + भवति हो जाता है।

'भावार्थ हे मैत्रेयि 1 जैसे बजाये हुये शंख के बाहर निकले हुये शब्दों के पकड़ने के लिये कोई पुरुष समर्थ नहीं होता है परन्तु जब शंख को पकड़ लेता है या शंख के बजानेवाले