पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६०६

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५१२ बृहदारण्यकोपनिपद स० को पकड़ लेता है तब शब्द को जो उसके अन्दर स्थित है पकड़ लेता है उसी प्रकार इस जीवात्मा का ग्रहण जभी हो सक्ता है जब शरीर से पृथक् करके देखा जाता है या शरीर इससे पृथक् करके देखा जाता है ॥ ६ ॥ मन्त्रः १० स यथा वीणाय वाद्यमानाय न वाह्याञ्छब्दाञ्छक्नु- याद्ग्रहणाय वीणार्य तु ग्रहणेन वीणावादस्य वा शब्दो गृहीतः॥ पदच्छेदः। सः, यथा, वीणाय, वाद्यमानाय, न, बाह्यान् , शब्दान् , शक्नुयात् , ग्रहणाय, वीणाय, तु, ग्रहणेन, वीणावादस्य, वा, शब्दः, गृहीतः ॥ अन्वय-पदार्थ । • यथा जैसे । वाद्यमानायै बजाई हुई । वीणायै वीणा के । वाह्यान्बाहर निकले हुये । शब्दान् शब्दों के । ग्रहणाय: ग्रहण करने के लिये। जना कोई पुरुष । न-नहीं। शक्नुयात्- समर्थ हो सका है । तु-परन्तु । वीणायैबीणा के । ग्रहणेन ग्रहण करने से । वा-अथवा । वीणावादस्यबीणा के बजाने- वाले के । ग्रहणेन-पकड़ लेने से । शन्दः गृहीतःशब्द ग्रहण हो जाता है। + तथैव-उसी तरह । + सावह पात्मा । + गृहीतः ग्रहण । + भवति हो जाता है। भावार्थ । हे मैत्रेयि ! जैसे वीणा से बाहर निकले शब्द पकड़े