पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६०८

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i ५२४ वृहदारण्यकोपनिषद् स० गीजी लकड़ी की अग्नि में से । धृमाः धूमावली । पृथक पृयक् पृथक् । विनिश्चरन्ति-चारों तरफ फैनना हैं । एवम् इसी प्रकार । अरे हे मैत्रेयि !। वा-निरचय करके । महतः गुणों में सबसे बड़ा और स्वार में प्रति मून । अस्य-इस । भूतस्य-जीवात्मा का । एतत्-या । निश्वसितम्-श्वास है। यत् जो । ऋग्वेदः-कग्वेद । यजुर्वेदः यजुद । सामवेदः सामवेद । श्रयाङ्गिरसायवर वेद । इनिहाला इतिहाम। पुराणम्भुराण । विद्या=गान विद्या । उपनिषद:उपनिषद् । श्लोकाःम्मन्न । बालि-जून। अनुन्याख्यानानि-माप्य । व्याख्यानानि व्याख्यान । इष्टम् यज्ञ । हुनम् होम । श्राशि- तम्-अन्नदान । पायितम्-जलदान । अयम् च-यह । लोकः- लोक । परः चम्पर । लोका-नोक । सर्वाणि-सब । च% और । एतानिन्थे । सर्वारिण-सय । भूतानि-प्राली । अस्य एव-इसी जीवात्मा के निश्वसितानि स्वाभाविक श्वास है। नावार्थ । हे मैत्रेयि ! जैसे अग्नि में गोली लकड़ी के डालने से धूम और चिन्गारी आदिक चारों तरफ फैलती हैं उसी प्रकार हे मैत्रयि ! गुणों में सबसे बड़ा और स्वरूप में सबसे अति सूक्ष्म जीवात्मा का ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वण- वेद, इतिहास, पुराण, गानविद्या, अात्मविद्या, मन्त्र, सूत्र, भाष्य, व्याख्यान, होम, अन्नदान, जलदान, यह लोक, परलोक और सब प्राणी स्वाभाविक श्वास हैं ॥ ११ ॥ मन्त्रः १२ स यथा सर्वासामपाधं समुद्र एकायनमेवछ सर्वेपार्छ