पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६१

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अध्याय १ ब्राह्मण ३ . . भावार्थ। हे सौम्य ! इसके पीछे प्राणदेव घ्राणदेव को पापरूप मृत्यु से दूर ले गया, और जब वह घ्राणदेव पापरूप मृत्यु से छूट गया, तब वही बाह्य वायु होता भया, वही यह वायु मृत्यु के परे पाप से मुक्त होकर बहता है ।। १३ ।। मन्त्रः १४ अथ चतुरत्यवहत्तद्यदा मृत्युमत्यमुच्यत स आदित्योऽ- भवत्सोऽसावादित्यः परेण मृत्युमतिक्रान्तस्तपनि ।। पदच्छेदः। अथ, चक्षुः, अत्यवहत्, तत्, यदा, मृत्युम्, अत्यमुच्यत, सः, श्रादित्यः, अभवत् , सः, असौ, श्रादित्यः, परेण, मृत्युम् , अतिक्रान्तः, तपति ॥ अन्वय-पदार्थ। अथ-इसके पीछे | + प्राणः-प्राणदेव । चक्षुः नेत्रेन्द्रिय देव को।+ मृत्युम-मृत्यु से । अत्यवहत्-दूर ले गया । यदा- जब । तत्-वह । मृत्युम-मृत्यु को । अतिक्रान्त: अतिक्रमण करके । अत्यमुच्यत-छूट गया।+तदा-तत्र । सः वही नेत्रस्थ प्राण । श्रादित्यः-सूर्य । अभवत्-होता भया। सा-वही । असौ यह । श्रादित्यः सूर्य । मृत्युम् मृत्यु के । परेण-परे । अतिक्रान्तः अतिक्रमण करके । तपति-प्रकाशता है। भावार्थ । हे सौम्य ! इसके पीछे प्रांणदेव नेत्र इन्द्रियदेव को मृत्यु से दूर ले गया, और जब नेत्रदेव मृत्यु को अतिक्रमण करके छूट गया, तब वही नेत्रदेव सुर्य हो गया, वही यह सूर्य मृत्यु को अतिक्रमण करके मृत्यु से परे प्रकाशित हो रहा है. ।। .१.४ ।।