अध्याय ५ ब्राह्मण.? ६०५ । खम्-प्राकाश । + एवम्ही । ब्रह्मन्ब्रह्म है। + ब्रह्म- + एव-ब्रह्म ही । ॐॐकार है । + तत्-सोई । खेम्-धाका- शरूप परमात्मा । पुराणम् निरालम्ब है। यत्-जो कुछ वेदितव्यम्-संसार में जानने योग्य है । + तत्-उस को। अनेन इस + ॐकारेण-ॐकार करके । वेद-पुरुप आनता + अतः इस लिये। अयम्-यह ॐ कार । वेद: वेदरूप है। + इति-ऐसा । ब्राह्मणा:-ऋपिलोग। विदुः जानते भये । + परन्तुचरन्तु । कौरव्यायणीपुत्रः कौरच्यायणी का पुत्र । इति-ऐसा । हनिश्चय करके । श्राह स्म-कहा है कि वायुरम्-जितने आकाश विपे सूत्रास्मा वायु व्यापक हो रहा है ।
- तत्-उसी । खम्-नाकाश को। + आह कहते हैं।
भावार्थ। यह परोक्ष ब्रह्म आकाशवत् व्यापक है, यही दृश्यमान नाम रूपात्मक जगत् भी है, यदि जगत् अपने अधिष्ठान चेतनं ब्रह्म से अलग करके देखा जाय तो केवल प्रज्ञानघन ब्रह्मही पूर्ण बच रहता हैं, सोई ब्रह्म आकाशरूप है वहीं काररूप है, और वही श्राकांशरूप परमात्मा है, हे शिष्य ! जो कुछ संसार विषे जानने योग्य है वह इसी ॐकार करके जाना जाता है, इसलिये यह ॐकार वेद है, ऐसा ऋपि लोगों का अनुभव है, और कौरव्यायणी के पुत्र ने ऐसा कहा है कि जितने आकाश बिषे सूत्रात्मा वायु व्यापंक होरहा है, वही. आकाशरूप ब्रह्म है, वहीं ॐकार करके जानने योग्य है ॥१॥ इति प्रथमं ब्राह्मणम् ॥१॥ . .