अध्याय ५ ब्राह्मण २. ६०१ भी इसी अक्षर "" का उपदेश प्रजापति ने दिया, और फिर उनसे पूछा कि क्या तुमने “द" अक्षर का अर्थ समझ लिया है, इस पर मनुष्यों ने कहा हे पितामह ! जो आपने "" अक्षर का उपदेश किया है उससे आपने हमलोगों से कहा है कि तुम सब कोई दान किया करो, ऐसा हमारे समझ में आया है, सो ठीक है या नहीं। इस पर प्रजापति ने कहा कि तुम सब लोगों ने हमारे आशय को भली प्रकार समझ लिया है, जाव ऐसा ही किया करो ॥ २ ॥ मन्त्रः ३ अथ हैनमसुरा ऊचुर्ब्रवीतु नो भवानिति तेभ्यो हैतदेवाक्षरमुवाच द इति व्यज्ञासिष्टा इति व्यज्ञासिष्मेति होचुर्दयध्वमिति न आत्थेत्योमिति होवाच व्यज्ञासिष्टेति तदेतदेवैपा दैवी वागनुवदति स्तनयित्नुर्ददद इनि दाम्यत दत्त दयध्वमिति तदेतत्रयई शिक्षेदमं दानं दयामिति ॥ इति द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥ २॥ पदच्छेदः। अथ, ह, एनम् , असुराः, ऊचुः, ब्रवीतु, नः, भवान् , इति, तेभ्यः, ह, एतत्, एव, अक्षरम् , उवाच, द, इति, व्यज्ञासिष्टाः, इति, व्यज्ञासिष्म, इति, ह, ऊचुः, दयध्वम् , इति, नः, आत्य, इति, ॐ, इति, इ, उवाच, व्यज्ञासिष्ट, इति, तत्, एतत् , एव, एषा, दैवी, वाक्, अनुवदति, स्तनयित्नुः, ददद, इति, दाम्यत, दत्त, दयध्वम्, इति, तत्, एतत्, त्रयम्, शिक्षेत्, दमम् , दानम् , दयाम्, इति ॥ ३६
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