पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६२७

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अध्याय ५ ब्राह्मण ३ ब्रह्माण्ड बिषे स्थित है, वह यही ब्रह्म है, हृदय में तीन अक्षर हैं, उनमें से एक अक्षर 'ह' है, जो 'हृञ्' धातु से बना है, क्योंकि इसमें सब विषयों का भोग इन्द्रिय द्वारा प्राप्त होता है, और इसी में इन्द्रियगण और शब्दादि विषय अपने अपने कार्य को करते हैं, यानी इन्द्रिय विषयों को ग्रहण करती हैं और शब्द, स्पर्श, रूपादि विषय अपने को अर्पण करते हैं, जो उपासक इस हृदय ब्रह्म को ऐसा जानता है उसके बान्धव और अन्य पुरुष उसकी सेवा सत्कार करते हैं, और जो हृदय में दूसरा अक्षर "द" है, वह दा धातु से निकला है, जिसका अर्थ दमन करना है, यानी इन्द्रियों और विषयों को दमन करना चाहिये। जो उपासक ऐसा "द" का अर्थ समझता है, उसको भी निज ज्ञाति और पर ज्ञाति के लोग धन आदि समर्पण करते हैं, आर प्रतिष्ठा देते हैं, हृदय में तीसरा अक्षर "य" है जो इण धातु से निकला है, जिसके माने गमन के हैं, जो उपासक हृदय में य अक्षर को ऐसा जानता है वह हृदय द्वारा स्वर्ग को प्राप्त होता है, इसी हृदय की ओर ज्ञानी पुरुष जाते हैं, सब कार्य के करने में हृदय ही मुख्य है, जिसका हृदय दुर्बल है, वह पुरुषार्थ के करने में असमर्थ है, सोई यह हृदय निश्चय करके प्रजापति है, हृदय में तीन अक्षर हैं, हृ., द., य., ह-का अर्थ ग्रहण करना है, यानी जो कुछ ग्रहण करने में श्राता है वह सब ब्रह्मही है, “द" का अर्थ दान का देना है, इन्द्रियों का दमन करना है और जीवों पर दया करना है, जिस शक्ति करके जीवमात्र पर दया की जाती है, या इन्द्रियों का या शत्रुओं का दमन किया जाता है, या कुछ जि किसी को दिया जाता है वह सब ब्रह्म है, जो उपासक हृदय