अध्याय ५ ब्राह्मण ४ ६१५ जो कोई । प्रथमजम्=पहिले उत्पन्न हुये । महत्-बड़े । यक्षम् पूज्य । एतम्-इस हृदयरूपी ब्रह्म को । ह स्पष्ट । एव% निश्चय करके । वेद-जानता है। + सावही पुरुप । सत्यम् सत्य । ब्रह्म-ब्रह्म । + भवति होता है । + च-और । इति इसी कारण । साम्बह । इमान्-इन सब । लोकान् लोकों को । जयति-जीतता है । इनु-इसके विपरीत असौ-बह । + अशानी +पुरुषः अज्ञानी पुरुष । शानिना ज्ञानी पुरुप करके । जितः पराजित । भवति होता है । यागो । एवम्-ऊपर कहे हुये प्रकार । एतत्-इस । महत्-बड़े । यक्षम् पूज्य । प्रथमजम्-प्रथम उत्पन्न हुये ब्रह्म को । असत्-असत् । वेद जानता है । यःम्जो कोई उपासक । + एवम्-इस प्रकार । एतत्-इस हृदय को । महत्- महान् । यक्षम् पूज्य । प्रथमजम्-अग्रज । सत्यम्= सत्य । ब्रह्म-ब्रह्म । इति करके । वेद-जानता है। + सः वह । + विजयी-विजयी । + भवति होता है । हि-क्योंकि । ब्रह्मन्ब्रह्म । सत्यम्-सत्य है । भावार्थ । हे शिष्य ! इस हृदय को अन्य प्रकार से वर्णन करते हैं, यही सत्यरूप है, यह सदा आत्मा के साथ विद्यमान रहता है, जो कोई इस हृदय को महान् पूज्य प्रथमज और अत्यन्त सत्य मानता है, वह इन सब लोकों को जीतता है, और इसके विपरीत इस हृदय को जो असत्य मानता है, वह अज्ञानी पुरुप ज्ञानी करके सदा जीता जाता है, अर्थात् जो हृदय को असत्य माननेवाला है वह बारबार मृत्यु भगवान् के मुख में गिरा करता है, आशय इस मन्त्र का
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