वृहदारण्यकोपनिषद् स० प्राणः प्राण ही । ह-निश्चय करके । ब्रह्म-ग्रप है । + किन्तु किन्तु । तत्वह। तथा ऐमा। न-नहीं है। + हिरयॉकि। प्राण प्राण । अन्नात्-यन्न । ने-बिना । शुप्यनि-मम् जाता है। ह तु एव इस पर । + एके कोई प्राचार्य । ह इति-ऐसा निश्चय करके । ग्राहकहना है कि देवतम्य दोनों देवता यानी थन और प्राण । एकधाभ्यम-एक । भूत्वा होकर । परमताम्- बदे महाय को। गच्छतः प्रात होते हैं या प्राप्त करते हैं । 'तत् ह हम पर । प्रादः प्रागृह ऋषि । पितरम् अपने पिता से । श्राद स्म-पाना है कि एवम् ऐसे माननेवाले । विटुप विद्वान के लिये। फि. स्विन्% क्या । साधु-सत्कार । कुर्याम् में कल । चौर । किमेव- क्या । अस्मै-इस विद्वान् के लिये । असाधु-निरस्कार । कुर्याम् करू । ह-तय । सा-या पिना । पाणिना में । + वारयन्-निपेध करता हुधा । इनि-रेमा । नाम: कहना भया कि । प्रातृदो प्राद !। मामन | बोचःऐसा कहो। अनयोः अन धार प्राण में । एकधाभ्यम-एकतामाय । भृत्या-मान कर । का-कौन पुरुष । परमनामश्रेष्टना की। गच्छति-प्राप्त होता है अर्थान कोई नहीं । + पुनः फिर पाने । तस्मै% से । उ ह-सट । इति-पा । उ, एनन् % यह बात । उवाचकहा कि । अन्नम् । इनि। वि%3 वि है । वै=निश्चय करके । हियोंकि । व्यन्न-यिल्प प्रम में ही । इमानि यह । सर्वाणि-मय । भृतानि-मागणी । विष्टानि- प्रविष्ट हैं । रम्र रूपी । इति-निश्चय करके । प्राणः प्राग, वै हि-क्योंकि । रम्-र नी । प्राण-प्राण में ही । इमानि यै। सर्वाणि-सव । भूतानि-प्राणी। रमन्ते-रमण करते हैं । यः जो । एवम् ऐसा । वेद जानता है । अस्मिन् उसमें । 33स पुत्र
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