पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६६७

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अध्याय.५ ब्राह्मण १४. ६५३ वा, अपि, एवंवित्, बहु, इंच, प्रतिगृहाति, न, ह, एव, तत् , गायच्याः, एकम्, चन, पदम्, प्रति ॥ अन्वय-पदार्थ। पके कोई प्राचार्य । ताम्-उसी । एताम्-इस। अनुष्टुभम् सावित्रीम्-अनुष्टुप्छन्दवाली गायत्री "तत्सवितुर्वृणीमहे" को। अन्याहुः उपनयन के समय उपदेश करते हैं । पतत् ऐसा । + वदन्ताः-कहते हुये कि । इयम-पह अनुष्टुप्छन्दवाला गायत्री । वाक्-प्सरस्वतीरूप है । तथा उस प्रकार । न-न । कुर्यात्-उपदेश करें । किंतु-किंतु । एतत्-इस । सावित्रीम्- सावित्रीरूप । गायत्रीम् गायत्री ( तत्सवितुः ) को । अनुयात्-उपनयन के समय शिष्य से कहे । इति-ऐमा । अनुमः हम लोग कहते हैं । यदि-अगर । एवंवि ऐसा नाता पुरुष । बहु इव-बहुतसा । प्रतिगृह्णाति-भोग्य वस्तु को ग्रहण करता है । + तुम्तो। तत् हवा अपि-उस भोग्य वस्तु का लेना निःसंदेह । गायध्या:-गायत्री के । एकम्=एक । चन भी । पदम्=पाद के । ह एव-निश्चय करके । + समम्= चरायर । नम्नहीं है। भावार्थ । हे शिष्य ! कोई कोई श्राचार्य ऐसा कहते हैं कि अनु- टुप्छन्दवाली गायत्री ( तत् . सवितुर्वृणीमहे वयं देवस्य भोजनम् । श्रेष्ठं सर्वधातमं तुरं भगस्य धीमहि ) को उप- नयन के समय पढ़ना चाहिये क्योंकि ये अनुष्टुप् छन्दवाली गायत्री सरस्वतीरूप है, ऐसा उनका कहना ठीक नहीं है, और न उनको ऐसा उपदेश करना चाहिये, सबको इसी सावित्रीरूप गायत्रों छन्द 'ॐ तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य