६७४ -- -- बृहदारण्यकोपनिषद् स० अन्वय-पदार्थ । ह-इसके पीछे । चक्षुः-नेनेन्द्रिय । उच्चकाम-शरीर से निकली। + च-और । तत्वह । संवत्सरम्-एक वर्पतक । प्रोष्यबाहर रह करके । च-ौर । आगत्य-फिर वापस पाकर । उवाचकहत्ती भई कि ।+ यूयम्-तुम लोग । मत्-मेरे । ऋते-चिना । जीवितुम्-जीने में । कथम्-कैसे । अशकत- समर्थ होते भये ? । इति-ऐसा । + श्रुत्वा-सुन कर । ते वे सब वागादि इन्द्रियाँ । ह-स्पष्ट । ऊचुः कहती भई कि । यथा जैसे | अन्धाः अन्धेजोग । चक्षुया-नेत्र करके अपश्यन्तःन देखते हुये । प्राणेन-प्राण करके । प्राणन्तः जीते हुये । वाचावाणी करके । वदन्तः कहते हुये । श्रोत्रेण-कान करके । शृण्वन्तः-सुनते हुये । मनसा-मन करके । विद्वांसः जानते हुये । रेतसावीर्य से । प्रजायमानाः= संतान उत्पन्न करते हुये । + जीवन्ति-जीते हैं। एवम् वैसे ही । + चयम्-हम लोग । + त्वाम्ऋते-तेरे विना अजीविष्मजीते रहे । इति-ऐसा ! + श्रुत्वा-उत्तर सुनकर । चक्षः-नेन्द्रिय । प्रविवेश ह-शरीर में फिर प्रवेश करती भई । भावार्थ तत्पश्चात् नेत्रेन्द्रिय शरीर से निकली, और एक वर्ष- तक बाहर रह कर फिर वापस आकर बोली कि, हे मनादि इन्द्रियो ! विना मेरे तुमलोग कैसे जीते रहे ? ऐसा सुनकर वागादि इन्द्रियों ने कहा कि जैसे अन्धेलोग नेत्र से न देखते हुये, वाणी से बोलते हुये, कान से सुनते हुये, मन से जानते हुये, वीर्य से संतान उत्पन्न करते हुये जीते हैं, वैसेही हम- लोग तुम्हारे विना प्राणों करके जीते रहे, ऐसा उत्तरः पाकर चक्षुः इन्द्रिय हार मानकर शरीर में फिर प्रवेश करती भई॥६॥ --
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