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पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६९३

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अध्याय ६ ब्राह्मण १ ६७९ .. नपुंसक लोग। रेतसा-वीर्य करके । अप्रजायमानाःसंतान न उत्पन्न करते हुये । प्राणेन-प्राण करके । प्राणन्तः जीते हुये । वाचा-वाणी करके । वदन्तःकहते हुये । चक्षुषा-नेत्र करके। पश्यन्तः देखते हुये । श्रोत्रेण-कान करके । शृण्वन्तः सुनते हुये । मनसा-मन करके । विद्वांसः जानते हुये । + जीवन्ति जीते हैं । एवम्-इसी तरह । + वयम्-हम लोग। अजीविष्म= जीते हैं । इति-ऐसा । + श्रुत्वा-उत्तर सुनकर । रेतः वीर्य । ह-भी। प्रधिवेश-शरीर में प्रवेश करता भया । भावार्थ। इसके पीछे वीर्य शरीर से निकला, और वह एक वर्षतक वाहर रहा, फिर वापस आनकर पूछता भया कि हे वागादि इन्द्रियो ! तुम लोग मेरे विना कैसे जीते रहे ? उन सबों ने उत्तर दिया कि जैसे नपुंसक पुरुष वीर्य करके संतान न उत्पन्न करते हुये, वाणी से कहते हुये, नेत्र से देखते हुये, कान से सुनते हुये, मनसे जानते हुये जीते हैं, वैसे ही हम लोग भी प्राण करके जीते रहे, ऐसा सुनकर वीर्य भी अपने को हारी मानकर शरीर में प्रवेश करता भया ॥ १२ ॥ मन्त्रः १३ अथ ह प्राण उत्क्रमिष्यन्यथा महासुहयः सैन्धवः पड्वीशशंकून्संवृहेदेव, हैवेमान्माणान्संववह ते होचुर्मा भगव उत्क्रमीन वै शक्ष्यामस्त्वदृते जीवितुमिति तस्यो मे बलिं कुरुतेति तथेति ॥ पदच्छेदः। अर्थ, ह, प्राणः, उत्क्रमिष्यन् , यथा, महासुहयः, सैन्धवः,