. ६८० बृहदारण्यकोपनिषद् स० पड्डीशशंकून् , संवृहेत्, एवम् , ह, एव, इमान् , प्राणान्, संवबर्ह, ते, ह, ऊचुः, मा, भगवः, उत्क्रमीः, न, वै, शक्ष्यामः, स्वत्, ऋते, जीवितुम् , इति, तस्य, उ, मे, बलिम्, कुरुत, इति, तथा, इति ॥ अन्वय-पदार्थ । अथ ह-तिसके पीछे । यथा जैसे । सैन्धवः सिन्धुदेश का। महासुहयः महाबलिष्ठ सुन्दर घोड़ा । पदीशशंकृन्-अपने मेखों को । संवृहत् उखाड़ डाले । एवम्-तैसे हो । प्राणान् वागादि इन्द्रियों को । ह वै-निश्चय करके । प्राणः प्राणवायु । संववह उनके उनके स्थानों से उखाड़ कर । उत्कमिप्यन्- संग ले चलने लगा । हतय । तेन्द्र वागादि इन्द्रियां। ऊचुः कहने लगी कि । भगवः हे पूज्यप्राण ! । मा मत तू । उत्क्रमी शरीर से बाहर निकल । त्वत्-तेरे । ऋते-विना । जीवितुम्मीने के लिये । न वै कभी नहीं । शक्ष्यामः हम सव समर्थ होंगे।+ तदा तय ।+ प्राणः प्राण ने।+ उवाच-उत्तर दिया कि । तस्य-तिस । मे मेरे को। चलिम्बलि । कुरुत-दो । इति-ऐसा । + श्रुत्वा-सुनकर । +ते-वे वागादि इन्द्रियाँ । तथा वैसाही । + अकुर्वन्-करती भई। भावार्थ । सबके पछि जैसे सिन्धुदेश का महाबलिष्ठ सुन्दर घोड़ा अपने मेखों को उखाड़ डाले तैसेही वागादि इन्द्रियों को प्राणवायु उनके उनके स्थानों से उखाड़कर अपने संग ले चलने लगा तब वे वागादि इन्द्रियां कहने लगी कि हे पूज्यप्राण ! तू शरीर से बाहर मत निकल, तुझ विना हम .
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