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पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/७२८

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- . बृहदारण्यकोपनिषद् स० आपूर्यमाणपक्षस्य, पुण्याहे, द्वादशाहम् , उपसद्वती, भूत्या, औदुम्बरे, कंसे, चमसे, वा, सपिवम् , फलानि, इति, संभृत्य, परिसमुह्य, परिलिप्य, अग्निम् , उपसमाधाय, परिस्तीर्य, आवृताज्यम् , संस्कृत्य, पुंसा, नक्षत्रण, मन्थम् , सनीय, जुहोति, यावन्तः, देवाः, त्वयि, जातवेदः, तिर्यनः, घ्नन्ति, पुरुपस्य, कामान् , तेभ्यः, श्रहम् , भागधेयम् , जुहोमि, ते, मा, तृप्ताः, सर्वैः, कामः, तर्पयन्तु, स्वाहा, या, तिरश्ची, निपद्यते, अहम् , विधरणी, इति, ताम् , त्वा, घृतस्य, धारया, यने, संराधनीम् , अहम्, स्वाहा ॥ अन्वय-पदार्थ। महत्-बढ़ाई को । प्राप्नुयाम्-मैं प्राप्त होऊ । इति=ऐसा । या जो । कामयेत-इच्छा करता है । सायद ।+ प्राक्-यज्ञ से पहिले । द्वादशाहम् बारह दिनतक । उपसद्वती-उपसात करनेवाला । भूत्वा होकर। श्रीदुम्बरे गतर के। कंसे-पात्र में । वा-अथवा। चमसे गूलर के चमस सदृश यर्तन में । सर्वोषधम्-सव अोपधियों को । चौर । फलानि फलों को। संभृत्य-इकट्ठा करके । परिसमुह्यभूमि को झार पोंछ कर और । परिलिप्य-लीप कर । अग्निम् अग्नि को । उपसमाधाय% स्थापन कर । परिस्तीर्य-कुशा विदाकर । श्रावृताज्यम्-इके हुये घी की। संस्कृत्य-संस्कार करके । पुसानुरुप नामक । नक्षत्रेण नक्षत्र के उदय होने पर । मन्थम्-सय प्रोपधियों से भरी हुई मन्थ को। संनीय-सामने रखकर । उदगयने-सूर्य के उत्तरायण मार्ग थिपे । आपूर्यमाणपक्षस्य-शुक्लपक्ष के पुण्याहे-शुभ दिन में । जुहोति होम करे | + एवम् ऐसा। +ब्रुवता कहता हुआ कि । जातवेदःहे जातवेद, अग्नि! ।