.. ७१६ वृहदारण्यकोपनिपद् स० रखकर सूर्य के उत्तरायणकाल में और शुक्लपक्ष के शुभदिन में हवन करे, ऐसा कहता हुआ कि हे जातवेदा, अग्नि ! तेरे विषे जितने क्रूर देवता हैं और पुरुषों के मनोरथ सिद्ध होने में हानि करनेवाले हैं, उनके लिये में घी का भाग देकर पूजन करता हूं. वे सब देवता मेरी दी हुई आहुति से तृप्त होकर मुझको सब कामनाओं से तृप्त करें, ऐसा कह कर स्वाहा शब्द का उच्चारण करे और फिर हे जातवेदा ! तेरे विषे जो देवियां स्थित हैं और जो कुटिल गतिवाली है और जिनको यह ख्याल है कि मैं ही सब कामनाओं का निग्रह करनेवाली हूं, ऐसे विघ्न करनेवाली और काम को सिद्ध करनेवाली को नमस्कार करता हुआ घी की धारा दे करके पूजन करता हूं, यह मन्त्र पढ़ कर स्वाहा शब्द का उच्चारण करे ॥ १ ॥ मन्त्रः २ ज्येष्ठाय स्वाहा श्रेष्ठाय स्वाहेत्यग्नी हुत्वा मन्थे सछ- सत्रमवनयति प्राणाय स्वाहा वसिष्ठाय स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सनवमवनयति वाचे स्वाहा प्रतिष्ठाय स्वाहेत्यग्नो हुत्वा मन्थे सछसवमवनयति चक्षुपे स्वाहा संपदे स्वाहे- त्यग्नौ हुत्वा मन्थे सनवमवनयति श्रोत्राय स्वाहाऽऽयत- नाय स्वाहेत्यग्नौ हुता मन्थे सख्सवमवनयति मनसे स्वाहा प्रजात्यै स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सस्रवमवनयति रेतसे स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे ससवमवनयति ॥ पदच्छेदः। . ज्येष्ठाय, स्वाहा, श्रेष्ठाय, स्वाहा, इति, अग्नौ, हुत्वा, मन्थे
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