प्रध्याय ६ ब्राह्मण ४ ७४१ भावार्थ। हे सौम्य ! इस स्त्री का सारा शरीर यज्ञ का साधन है, और उसकी उपस्थ इन्द्रिय पवित्र वेदी है, लोम कुशा हैं, और जो उपस्थ समीपस्थ दो मांसखण्ड हैं वहीं सोमलता के फल हैं और जो चर्म है वह वैल के चर्भ के सदृश है जो वाजपेय यज्ञ में रक्खा जाता है । उपस्थ इन्द्रिय के बीच का कुण्ड प्रदीप्त अग्नि है जो इस अग्नि में जब वीर्यरूपी होम द्रव्य का हवन किया जाता है तो जितना फल यानी लोकादि वाजपेय यज्ञ करके होता है उतनाही फल लोकादि की प्राप्ति- रूप इस यज्ञ करके होता है जो उपासक इस प्रकार जानता हुश्रा मैथुन कर्म करता है वह इन स्त्रियों के पुण्य को प्राप्त होता है अर्थात् जो उपासक इस प्रकार जानता हुआ स्वभार्या से मैथुनकर्म करता है वह उस स्त्री के पुण्यकर्म के फल को प्राप्त होता है और जो ऐसा नहीं जानता हुआ मैथुनकर्म करता है उसके पुण्यकर्म को स्त्रियां हर लेती हैं ॥ ३ ॥ मन्त्रः ४ एतद्ध स्म वै तद्विद्वानुद्दालक आरुणिराहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान्नाको मौद्गस्य आहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान्कुमारहारित आह बहवो मर्या ब्राह्मणायना निरिन्द्रिया विसुकृतोऽस्मा- ल्लोकात्प्रयन्ति य इदमविद्वाछसोऽधोपहासं चरन्तीति बहु वा इदछ सुप्तस्य वा जाग्रतो वा रेतः स्कन्दति ॥ पदच्छेदः। एतत् , ६, स्म, वै, विद्वान् , उद्दालकः, तत्, आरुणिः,
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