७५० बृहदारण्यकोपनिषद् स० अन्वय-पदार्थ। याम-जिस स्त्री के प्रति । + यदा-जब । सा-वह पुरुष । इति=ऐसा । इच्छेत्-चाहे कि । + सावह स्त्री । मा=मेरे साथ । कामयेत प्रेम करे तो। तस्याम् उस स्त्री में । अर्थम्= अपने प्रजनन इन्द्रिय को। निष्टाय रखकर । मुखेन-मुख से । मुखम-मुख को। संधाय=मिला कर । अस्याउस स्त्री के । उपस्थम् उपस्थ इन्द्रिय को। अभिमृश्य-स्पर्श करके । जपेत्- नीचे लिखे हुये मन्त्र को जप करे । अङ्गात् अङ्गात् अङ्ग अङ्ग से। संभवसि हे वीर्य ! तू उत्पन्न होता है । +चम्चौर । + विशेषत: खास कर । हृदयात् हृदय से । अधिजायसे- उत्पन्न होता है । सा-वही । त्वम्-त् । + मम=मेरे । अङ्गक- षाय: अङ्ग का रस । असि-है। + वीर्य हे वीर्य !। दिग्ध- विद्धम् इव-विपलिप्त शरविद्धा मृगी के समान । अमूम्-उस । इमाम्-इस मेरी स्त्री को । मयि=मेरे विपे । मादय मदान्वित कर। भावार्थ । जब पति अपनी स्त्री के प्रति इच्छा करे कि वह स्त्री मेरे वश में रहे तो उसको चाहिये कि उस स्त्री में अपनी प्रजनन इन्द्रिय को रख कर मुख से मुख मिला कर उस स्त्री की उपस्थ इन्द्रिय को स्पर्श करके नीचे लिखे हुये मन्त्र का जप करे "अङ्गादङ्गादित्यादि। जिसका अर्थ यह है कि हे वीर्य ! तू मेरे अङ्ग अङ्ग से उत्पन्न हुआ है, और खास करके हृदय से, तू मेरे हर एक अङ्ग का रस है, हे वार्य ! तू इस मेरी स्त्री को मेरे विषे ऐसी मदान्वित कर दे यानी वश में कर दे जैसे विपलिप्तशरबिद्ध मृगी व्याध के वश में हो जाती है ॥ १ ॥ , .
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