७५६ बृहदारण्यकोपनिषद् स० में अग्नि को रख करके और परिस्तरगाादि कर्म को उलटा करे, और सिरकी को उलटी बिछाकर उस बर्तन में रखा हुई अग्नि में घी करके तर को हुई उन उलटी मिरकियों को हवन करे, यह कहता हुश्रा कि अरे दुर ! तूने मेरी प्रदीप्त योपाग्नि में होम किया है, इसलिय में तेरे प्रागा, अपान को हर लेता हूं, फिर उन शत्रु का नाम लेकर ऐसा बाहे कि अरे दुष्ट ! तूने मेरी प्रदीप्त योषाग्नि में यानि दी है, इसलिये मैं तेरे सन्तान और पशुश्नों को नाश किये देता हूं, फिर उस शत्रु का नाम लेकर या कहे कि है दुष्ट ! तूने मेरी प्रदीप्त योगाग्नि में आहुति दी है, इसलिये मैं तेरे इष्ट और सुकृत कमों के फल को हर लता हूं, फिर उस शत्रु का नाम लेकर ऐसा कहे कि अरे दुष्ट ! तुने मेरी प्रदीप्त योपाग्नि में होम किया है, इसलिय में तेग सब श्राशाओं को हर लेता हूं, फिर उस शत्रु का नाम लेकार ऐसा कहे कि इस प्रकार का जाननेवाला प्रावण जिसकी शाप देता है वह विषयासात पापी शत्रु इस लोक से मरकर चला जाता है, इसलिये ऐसा जाननवाला पुरुष वेद पढ़ने- वाले की स्त्री के साथ उपहास की इच्छा न करें, क्योंकि ऐसा श्रोत्रिय ब्राह्मण उसका शत्रु बन जाता है ।। १२ ।। मन्त्र:१६ अथ यस्य जायामा विन्देत्त्यहं कसेन पिवेद- हतवासा नैनांपलो न पल्युपहन्यात्रिरात्रान्त प्राप्लुत्य ब्रीहीनवघातयेत् ॥
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