पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/७७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- ७६४ वृहदारण्यकोपनिषद् स० उद्धृत्य, प्राश्नाति, प्राश्य, इतरस्याः, प्रयच्छति, प्रक्षाल्य, पाणी, उदपात्रम् , पूरयित्वा, तेन, एनाम् , त्रिः, अभ्युक्षति, उत्तिष्ठ, अतः, विश्वावसो, अन्याम्, इच्छ, प्रपूाम् , संजायाम् , पत्या, सह, इति ॥ अन्वय-पदार्थ । अथ तत्पश्चात् । अभिप्रातः एवन्य प्रातःकाल स्थालीपाकावृताऽऽज्यम् चेष्टित्वा-स्थालीपाक की विधि के अनुसार घी संस्कार करके । स्थालीपाकस्य-स्थालीपाक को। उपघातम्-स्पर्श करके । जुहोति-हवन करे । + एवम् ब्रुवन = यह कहता हुश्मा कि ! अग्नये स्वाहा अग्नि के लिये पाहुति देता हूं मैं । अनुमतये स्वाहासनुमति देवता के लिये साहुति देता हूँ मैं । देवाय सवित्रे सत्यप्रसवाय स्वाहा-मन्य है प्रसव जिसका यानी बुद्धि का देनेवाला है जो उम प्रकाशमान सूर्य के लिये आहुति देता हूँ मैं। इति इस प्रकार । हुत्वा होम करके । उद्धत्य-बचे हुये चरु को निकाल कर । प्राश्नाति-पुरुष खाय । + चम्-ौर । प्राश्य-खाकर फिर । इतरस्या:ग्नी को। प्रयच्छति-देवे । + च-और । पाणी-हाथ को । प्रक्षाल्य-धो कर । उदपात्रम्-जलपात्र को । पूरयित्वा भर कर । तेन उस जल से । एनाम्-उस झी को । त्रिः-तीन चार । +मन्त्रेण-मन्त्र पढ़कर । अभ्युक्षति-मार्जन करें । + एवम्वन्- यह कहता हुधा कि । विश्वावसो हे गन्धर्व!। अतः इस भैरी स्त्री से । उत्तिष्ठ-अलग हो । अन्याम्-ौर । प्रपूर्ध्याम्=किसी दूसरी युवा को प्राप्त हुई। पत्यापति के । सह-साथ । + संक्रीडमानाम् खेलनेवाली । संजायाम्सी को। इच्छ इति-इच्छा कर । - -