अध्याय ६ ब्राह्मण ४ ७६५ भावार्थ । तत् पश्चात् बड़े प्रातःकाल स्थालीपाक की विधि के अनुसार चरु को पकाकर, और उसको घी से संस्कार करके, और फिर स्पर्श करके हवन करे, यह मन्त्र पढ़ता हुआ "अग्नये स्वाहा, अनुमतये स्वाहा, देवाय सवित्रे सत्यप्रसवाय स्वाहा" जिसका अर्थ यह है कि अग्नि के लिये आहुति को देता हूं मैं, अनुमति देवता के लिये आहुति देता हूं मैं, सत्य है प्रसव जिसका यानी जो बुद्धि का देनेवाला है, उस प्रकाशमान सूर्य के लिये आहुति देता हूं मैं, इस प्रकार होम करके अवशिष्ट चरु को निकालकर पुरुप प्रथम खाय, और फिर स्त्री को देवे, और हाथ धोकर जलपात्र को भरे, और उस जल से स्त्री को तीन बार नीचे लिखे मन्त्र को पढ़कर मार्जन करे, "उत्तिष्ठातः विश्वावसोऽन्यामिच्छ प्रपू- संजायां पत्या सहेति" जिसका अर्थ यह है कि हे गन्धर्व ! मेरी स्त्री से अलग हो, और किसी दूसरी युवा को प्राप्त हुई स्त्री जो पति के साथ खेलनेवाली हो, उसके निकट जाने . की इच्छा कर, मेरी स्त्री को छोड़ दे ॥ ११ ॥ मन्त्रः २० अथैनामभिपद्यतेऽमोहमस्मि सात्वछ सा त्वमस्यमोऽहं सामाइमस्मि ऋक्त्वं धौरहं पृथिवी त्वं तावेहि सघर- भावहै सह रेतो दधावहै पुछसे पुत्राय वित्तय इति ।। पदच्छेदः। अथ, एनाम्, अभिपद्यते, अमः, अहम्, अस्मि, सा, तू इस
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