. ७६६ बृहदारण्यकोपनिषद् स० त्वम् , सा, त्वम्, असि, अमः, अहम्, सान् , अहम् , अत्मि, ऋक्, त्वम् , द्यौः, अहम् , पृथिवी, त्वम् , तौ, एहि, संरभावहै, सह, रतः, दधावहै, पुंसे, पुत्राय, वित्तये, इति । अन्वय-पदार्थ। अथ-इसके पश्चात् । एनाम् इस न्त्री को पानी अपनी मी के साथ । अभिपद्यतेप्राप्त होवे यानी उसको शालिगन करें। एवम्ब्रुवन् यह कहता हुया कि। अहम् में । श्रमप्राय- त्यानीय । अस्मि-हूं। साबह । त्वम्-तू ।+ वाक-वाणी- स्थानीय है । ला-वह । त्वम्-तु वाणी । असि-है। अहम् = मैं । श्रमः प्राण । लाम-सामवेद के समान । अहम् में। अस्मि है। त्वम्-त् । ऋग्वेद के समान है । द्यौः वर्षाल्प वोर्य का देनेवाला नाकाश । अहम् में है। त्वम् । पृथिवी-बीर्यधात्री पृथिरी है । पहि-पायो। तो वे दोनों हन । संरभावहै-भिलें । + =और । पुसे-पुरुषार्थ करने हारे । वित्तये-ज्ञानी । पुत्राय-पुत्र होने के लिये । रेतः वीर्य को। सहद धावहै-एक साथ धारण करें। भावार्थ। इसके पश्चात् अपनी स्त्री से आलिङ्गन करे, यह कहता हुआ कि मैं प्राणस्थानी हूं, तू वाणी है, में प्राण हूं यानी जैसे प्राण के आश्रय वाणी है, वैसे तू मेरे आश्रय है, सामवेद के समान हूं, तू ऋग्वेद के समान है, मैं वर्षा रूप वीर्य का देनेवाला आकाश हूं, तू वीर्यधात्री पृथिवी है, प्रायो एकान्त विषे एकत्र होकर पुरुषार्थ करने हारे ज्ञानी पुत्र के लिये एक साथ ही वीर्य को धारण करें ॥ २० ॥ हम दोनों
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