पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बृहदारण्यकोबनिषद् स० वाले । + उद्गातारम्-उद्गाता को । + जनाः लोग । एव-अवश्य । दिदृक्षन्ते देखने की इच्छा करते हैं। अथो अव फल को दिखलाते हैं। यःजो । साना-साम के । एतत्- इस । स्वम्-स्वररूपी धन को । एवम इस प्रकार । वेद-जानता है । +त्र-और । यस्य-जिसको । स्वम्-स्वररूपी धन । भवतिप्राप्त होता है। अस्य-उसको । इदम् यह । स्वम्- लौकिक धन । अपि-मो । भवति प्राप्त होता है। भावार्थ। हे सौम्य ! जो उद्गाता साम के स्वररूपी धन को जानता है, उसको दुनियासंबन्धी धन अवश्य प्राप्त होता है, उद्गाता का धन उसका स्वर है, इसलिये ऋत्विज कर्म करने की इच्छा करता हुआ अपनी वाणी में यथाशास्त्रविधि उत्तम स्वर पाने की इच्छा करे, और उसी ऐसी संस्कार की हुई उत्तम वाणी करके यज्ञकर्म को करे, और यही कारण है कि यज्ञ विषे उत्तम स्वरवाले उद्गाता नियत किये जाते हैं। हे प्रियदर्शन ! अब आगे इसके फल को दिखाते हैं, जो उपासक साम के स्वररूपी धन को अच्छे प्रकार जानता है, और जिसको स्वररूपी धन प्राप्त है, उसी को यह संसारी धन भी प्राप्त होता है ।। २५ ।। मन्त्र: २६ तस्य हैतस्य साम्नो यः सुवर्ण वेद भवति हास्य मुवर्ण तस्य वै स्वर एव सुवर्णं भवति हास्य सुवर्ण य एवमेतत्सान्नः सुवर्णं वेद ।। पदच्छेदः। तस्य, ह, एतस्य, साम्नः, यः, सुवर्णम् , वेद, भवति, ह, 7 " you are