पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/८६

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७० बृहदारण्यकोपनिषद् स० दन्यन्नास्ति कस्माशु विभेमीति तत एवास्य भयं वीयाय कस्माद्धयभेप्यद् द्वितीया भयं भवनि ।। पदच्छेदः। सः, अबिभेत्, तस्मात्. एकाकी, बिभेति, सः, ह, अयम्, ईक्षांचक्रे, यत्, मत्, अन्यत्, न, अस्ति, फास्मात्, नु, विभेमि, इति, ततः, एव, अस्य, भयम्, बीयाय, कामात्, हि, अभेष्यत् , द्वितीयात् , बै, भयन् , भवति ॥ अन्वय-पदार्थ। सा-वह प्रजापति । अस्मदादि यत्-हम लोगों को नह अविभेत् इरता भया । तस्मात्-तिसी कारण । +अद्य-शास. कल । एकाको अकेला पुरुप । विभेति-ढरता है । +पुनः फिर । सः ह-वहीं । अयम्=यह प्रजापति । ईक्षांच-विचार करने लगा कि । यत्-जब । मत्-मुझसे । अन्यत्-इसरा और कोई । नम्नहीं । अस्ति है । + तत्तो । कस्मात् नु-किससे । + अहम् मैं । विभेमि इति डरूं । ततः एव-से विचार से ही। अस्य-उस प्रजापति का । भयम्=भय । चीयाय-दुर हो गया । भयम्भय । हि-प्रवश्य । द्वितीयात्-दूसरे से। भवति होता है । * यदा + अन्यत् + नास्ति-जब दूसरा रहा नहीं। + तदा-तव । कस्मात्=कैसे। अभेप्यत्-भय होगा। भावार्थ। हे सौम्य ! वह प्रजापति अकेला होने के कारण डरता भया और यही कारण है कि आजकल अकेला पुरुष डरता है फिर वही प्रजापति विचार करने लगा कि जब मुझसे दूसरा कोई नहीं है तो मैं क्यों डरूँ ऐसे विचार से उस